________________ . // 60 // // 61 // // 62 // // 63 // // 64 // // 65 // इयं तव प्रियसखी, नूनं दुष्कररोचिका।। प्रष्टव्या तद् भवत्यैव, पर्यालोचो हतोऽत्र नः इत्युक्त्वा रोदितुं लग्ना, विकीर्णैरहमश्रुभिः / ततो लवलिका प्राह, विषादं स्वामिनि ! त्यज प्रश्नयिष्याम्यहमिमां, नेयं सन्तापकारिणी। पित्रोभविष्यतीत्येवं, मम स्वास्थ्यं कृतं तया इतश्च खेचरोर्वीशास्ते स्वयंवरमण्डपात् / दृष्ट्वाऽवृतवरामेव, गतां मदनमञ्जरीम् विलक्षा हृतसर्वस्वा, इव लोष्टुहता इव / कनकोदरराजेन्द्रं, रुषाऽसंभाष्य निर्गताः ततो राजा ययौ शोकं, लङ्कितं वर्षवद् दिनम्। सुप्तो रजन्यां नायाता, निद्रा दुःखेन केवलम् निद्रालवेऽथ गमितप्रायायामागते निशि। . स्वप्ने चत्वारि सोऽपश्यद्द्वौ नरौ द्वे च योषितौ तैः प्रोक्तं मुञ्च खेदं त्वं, नरेन्द्र कनकोदर!। वरो दृष्टचरोऽस्माभिस्तव पुत्र्या भविष्यति तवान्यान्वेषणेनालमियं नान्यवरोचिता। . द्वेष्या अस्माभिरेवास्याः कृता विद्याभृतोऽखिलाः जातं प्रभातं स्वप्नार्थं, बुद्ध्वा स्वस्थोऽभवन्नृपः / अथापृच्छल्लवलिका, सखी मदनमञ्जरीम् अधुना वद किं कार्य, सा प्राह पितरौ यदि। आज्ञां दत्तस्तदा भ्रान्त्वा, स्वयमेव वसुन्धराम् वरं वृणोमि रुचितं, पूरयामि मनोरथम् / प्राह तन्मे लवलिका, मया राज्ञे निवेदितम् // 66 // // 67 // // 68 // // 69 // // 70 // // 71 // 191