________________ बन्धुत्वेन प्रपन्नौ तौ, कृतं कृत्यमथोचितम् / विलोक्य पुस्तकं रात्नं, भगवत्पूजनादिकम् // 840 // ततः स्वहृदयानन्दिविषयग्रामलालितः / स्थितस्तत्र मनाग्न्यूनसागरद्वितयावधि // 841 // ततश्च मानवावासे, सुनुर्मदनरेणयोः / आभीरोऽहं कलन्दाख्यो, भवितव्यतया कृतः // 842 // न मामन्वागतौ तत्र, महत्तमसदागमौ / तन्त्रान्तरीयको दृष्टः, श्राद्धधर्मश्च तत्र न , || 843 // . जातः प्राचीनसंस्कारात् केवलं पापभीरुकः / ज्योतिष्कोऽहं ततो जातो, भद्रकत्वानुभावतः // 844 // तत्र लालयता भोगैरिन्द्रियाणि सदा मया / सेवितौ दृढरागेण, महामोहपरिग्रहौ / // 845 // ततोऽहं दर्दुराकारो, रुष्टया प्रियया कृतः / नानाविधेषु स्थानेषु, बहुशो भ्रमितस्ततः // 846 // ततश्च मानवावासे, काम्पिल्यनगरे कृतः / . धराया वसुबन्धोश्च, तनयो वासवाभिधः // 847 // शान्ता(न्त्या)ख्यं सूरिमासाद्य, तत्र सद्धर्मदेशकम् / ' पुनदृष्टौ मया भद्रे, महत्तमसदागमौ // 848 // द्वितीयकल्पे संप्राप्तस्तत्प्रभावात् सुरालये / तत्रापि स्मृतिमारूढौ, महत्तमसदागमौ // 849 // भुक्त्वाऽतुलं सुखं तत्र, सुचिरं काञ्चने पुरे / आगतो मानवावासे, मोहात् तौ तत्र विस्मृतौ // 850 // इत्थं संख्यातिगा वारा, दृष्टौ नष्टौ च तावुभौ / . सामान्यश्राद्धधर्मोऽपि, दृष्टः सति महत्तमे . // 851 // 182