________________ परिग्रहस्तु मां ब्रूते, कुरु स्वर्णादिसंग्रहम् / असन्तुष्टोऽर्थलाभे हि, जायते सुखभाजनम् // 600 // अहं त्वाकर्ण्य वचनं, त्रयाणामपि तादृशम् / चित्ते दोलायितो यावद्, वाताधूत इव द्रुमः // 601 // ज्ञानसंवरणो राजा, तावदाक्रम्य मां स्थितः / महामोहप्रसादार्थी, तत्सैन्यबलपोषक: // 602 // ततः सदागमप्रोक्तं, मया वाक्यं न बुध्यते / परिग्रहमहामोहवाक्यास्वादस्तु लभ्यते , // 603 // ततो धर्मकियां त्यक्त्वा, जातोऽहं भोगमूर्छितः / .... निवार्य साधुदानादि, धनसंग्रहणे रतः // 604 // करेण पीडिता लोकास्ततो मूर्छाभृता मया / . . नारोचत महामोहदोषान्मह्यं सदागमः / // 605 // परिग्रहस्य वीर्येण, पूर्णा तृष्णा न मे धनैः / सदागमो गतो दूरे, मत्वा मां तादृशं ततः // 606 // निष्कण्टको ततस्तुष्टौ, महामोहपरिग्रहौ / आगतः कोविदः सूरिरकलङ्कयुतोऽन्यदा // 607 // तस्याकलङ्कदाक्षिण्याद्, गतोऽहं नतिहेतवे / स सूरिरकलङ्कश्च, ससाधुर्वन्दितो मया // 608 // इतश्च दुश्चरित्रं मे, ज्ञातं कोविदसूरिणा / ज्ञानालोकेन लोकोक्तेरकलङ्कन चाखिलम् // 609 // ततो व्यजिज्ञपत् सूरिमकलङ्को निवेद्यताम् / सदागमस्य महिमा, खलसङ्गे च दूषणम् // 610 // घनवाहनभूपाय, यथाऽसौ सुखमश्नुते / भक्तः सदागमे दुष्टसङ्गत्यागी विशेषवित् // 611 // 12