________________ // 516 // // 517 // // 518 // // 519 // // 520 // // 521 // आरूढस्योच्चपदिकास्वाविर्भूय करिष्यति / शुक्लध्यानाख्यगोशीर्षचन्दनद्रवसेचनम् ततोऽर्धमार्गेऽतिकान्ते, गाढानन्देन निर्भरम् / नात्युच्चपदिकास्वेतत्, समारोक्ष्यति निःसहम् आत्मभूतेन तेनोच्चैर्नीतस्त्वं तावती भुवम् / निस्सहं तत्र तन्मुक्त्वा, गच्छेरूज़ समाधिमान् पर्यन्ते पदिकामार्गमपि त्यक्त्वा स्वशक्तितः / पञ्चहस्वाक्षरोच्चारकालं स्थित्वा विहायसि निरालम्बेन रूपेणोड्डीय गन्तव्यमुच्चकैः / शिवालयमठे स्थेयं, शाश्वतानन्दशालिना दिशाऽनया वानरकं, तन्मठे नयनक्षमम् / इति मे गुरुणा प्रोक्तं, तदाज्ञा क्रियते मया अथाकलको मौनीन्द्रवचोभावविदब्रवीत् / / चारु चारूपदिष्टं ते, गुरुणा ज्ञानभानुना . चारु तद्वचनं कर्तुं, मुनिराज ! प्रवर्तसे / प्रत्यासीदति. मुक्तिस्त्वां, कृतेदृशमनोजयम् ततोऽगृहीतसंकेते !, सोऽकलङ्को महाशयः / आर्दीकर्तुं मम मनो, ववर्षेमा वचःसुधाम् / स्फुयाक्षरैरनेनेत्थं, मुनिना यन्निवेदितम् / . सद् भद्र !, भवताऽबोधि, किं न वा घनवाहन ! चित्तमेव समाख्यातमनेन क्लेशवर्जितम् / मोक्षस्य प्रापकं मुख्यं, सामग्र्यन्या तदर्थिका लेश्यानां परिणामेन, तत् क्लेशत्याजनक्षमम् / शुद्धेष्वध्यवसायेषु, गच्छदेवोपपद्यते // 522 // // 523 // // 524 // // 525 // // 526 // // 527 // 155