________________ // 419 // // 420 // // 421 // // 422 // // 423 // // .424 // बहिर्भूतोऽप्यसौ राज्यं, पालयत्यन्तराऽन्तरा।। तेन चारित्रधर्माद्या, मनाग् यान्ति प्रसन्नताम् प्रवर्तते यथाकालं, त्रिवर्गेऽपि विभज्य सः। भवत्यधमवत् तेन, नैकान्तासुखभाजनम् स्थिताः स्वस्वसदाचारे, ये हि सामान्यधर्मिणः / राजानो ब्राह्मणाद्याश्च, तेषां रूपं भजत्यसौ कर्मणाऽसौ गतस्तेनोचितेन श्लाघ्यतां जने / तस्योपरि ततस्तुष्टः, स कर्मपरिणामण्ट् कदाचित् पशुसंस्थाने, सुखहेतौ नयत्यमुम् / कदाचिन्मानवावासे, कदाचिद् विबुधालये तुर्ये वर्षेऽथ राजाऽभून्मध्यमो घोषणे कृते / महामोहमहीन्द्राय, सचिवोऽभिदधे गिरम् धर्मार्थकाममोक्षेषु, राजाऽयं सततोद्यतः / तथाऽपि मन्यते मोक्षं, पारमार्थिकमर्थवित् सक्तस्तद्धेतुधर्मे च, न प्रसक्तोऽर्थकामयोः / चिन्तयन्नपि तदोषांस्तवृत्तिः कर्मनोदनात् जिहासुरपि नो भावबन्धनं विजहात्यसौ / धनपुत्रकलत्रादिभवपाशेन यन्त्रितः अस्माभि पराध्योऽसौ, तेन सिंहो मृगैरिव / सेव्य एव परं स्वामिनित्युक्त्वा विरराम सः शुद्ध परिचिनोति स्म, सिद्धान्तमथ मध्यमः / तस्करान् पीडयामास, मनाक् चित्ताटवीगतान् सेवका इव तस्यासन, महामोहादयस्ततः / .. देशोद्देशेन राज्यं स्वं, मध्यमेनाथ लक्षितम् 100 // 425 // // 426 // // 427 // // 428 // ' म सः // 429 // . // 430 //