________________ // 1224 // // 1225 // // 1226 // // 1227 // // 1228 // // 1229 // अतिदुष्टाशयकरं, क्लिष्टसत्त्वविचिन्तितम् / पापश्रुतं सदा धीरैर्वयं नास्तिकदर्शनम् . ये सर्वज्ञं निराकृत्य, वेदप्रामाण्यमास्थिताः / निर्वृतिस्तत्त्वतोऽभीष्टा, न तैर्मीमांसकैरपि भूमिष्ठास्तदिमे सर्वे, न मुक्तिपथदर्शिनः / अप्रमत्तत्वशिखरस्थितास्तद्दर्शिनो जनाः तन्मिथ्यादर्शनग्रस्ता भवचक्रस्थिता जनाः / तादृशा नाद्रिसानुस्था, नि:स्पृहा धूतकल्मषाः प्रकर्षः प्राह तदिदं, भवचक्रस्य दर्शनम् / महाहास्यकरं सिद्धं, नात्रास्मद्वाञ्छितं किल संतोषदर्शनायावामागतौ स न वीक्षितः / न च तत्सहिता लोकास्तत् तान् दर्शय साम्प्रतम् विमर्शः प्राह शिखरे, जैनं पुरमिह स्थितम् / . तद्यावोऽत्र यथा मुख्या, दिक्षा तव पूर्यते एवमस्त्विति तेनोक्ते, तौ तत्र नगरे. गतौ / . दृष्टाश्च मुनयस्तत्र, तपोनिधूतकल्मषाः विमर्शः प्राह ते ह्येते, लोका येऽन्तर्द्विषच्छिदः / त्रसानां स्थावराणां च, बान्धवाः सर्वदेहिनाम् नादत्तग्राहिणः सत्यवाचोऽमी ब्रह्मचारिणः / .. निरीहाः स्वशरीरेऽपि, निर्ममा निष्परिग्रहाः चित्तवृत्तिमहाटव्यामेतेषां सा प्रमत्तता / शुष्का नदी तद्विलासपुलिनं गलितं द्रुतम् भग्नश्च चित्तविक्षेपमण्डप: पतिताऽखिला / तृष्णाऽऽख्या वेदिका नष्टं, विपर्यासाख्यविष्टरम् // 1230 // // 1231 // // 1232 // // 1233 // // 1234 // // 1235 // . . . 233