________________ रमणोऽयमनेनैव, प्रेरितो याति तद्गृहे / / अतः परं च यद्भावि, तन्निभालय कौतुकम् // 972 // एवमस्त्विति तेनोक्ते, गतौ तौ गणिकागृहे / दृष्टा च कुन्दकलिका, वेश्मद्वारे विभूषिता // 973 // वालिता कन्धरा नासा, विमर्शेनाथ कुञ्चिता / प्रकर्षः प्राह हेतुस्ते, को व्यलीकस्य मातुल ! // 974 // स प्राह पुष्पवसनालङ्कारपिहितामिमाम् / नवश्रोतःश्रु(स्रोतां विष्टाकोष्ठिकां किं न पश्यसि // 975 // . इतो दुष्यति दुर्गन्धाच्छपे तुभ्यं शिरो मम / तदस्या दूरतः स्थित्वा, पश्यावो यद्भवेदिह // 976 // प्रकर्षोऽपि जगौ युक्तमुक्तं मातुलं ! मे त्वया / ममाप्यशुचिगन्धेन, महार्तिरिह जायते / // 977 // अपसृत्य ततो दूरे, स्थितौ तौ रमणो युवा। आगतोऽत्रान्तरे पश्चात्, सभयो मकरध्वजः // 978 // दृष्ट्वाऽथ कुन्दकलिकां, ममज्ज रमणोऽमृते / मुदा मदनमञ्जर्या, संज्ञितां तं च सैक्षत // 979 // आकर्णाकृष्टबाणस्तं, जघान मकरध्वजः / अभ्यन्तरे प्रविश्याथ, तस्याः स प्रददौ धनम् // 980 // तद् गृहीत्वा समीपस्था, जगौ मदनमञ्जरी / वत्स ! त्वया कृतं सम्यग्, वत्सा त्वयि समुत्सुका // 981 // इहाजिगमिषुः किन्तु, चण्डाख्योऽस्ति नृपात्मजः। . तत् तावत् तिष्ठ लीनस्त्वं, पश्चाद्भोगांश्च भोक्ष्यसे // 982 // रमणोऽभूदिदं श्रुत्वा, भयाधिष्ठितविग्रहः / चण्डोऽथाभ्यागतो द्वारे, भूयान् कोलाहलोऽजनि - // 983 // 212