________________ // 464 // // 465 // // 466 // // 467 // // 468 // // 469 // ततः प्रोक्तो विमर्शेन, तेषां भेदार्थविस्तरः / नरवाहनराजोऽपि, तं पप्रच्छ विचक्षणम् . तेनापि तस्य राजेन्दोर्भावार्थः प्रतिबोधितः / अथागृहीतसङ्केता, पप्रच्छ भवजन्तवे महानद्यादिवस्तूनां, वाच्यो भेदस्त्वयाऽपि मे / तेषां प्रातिस्विकं रूपं, न जानाम्यहमप्यहो प्राह संसारिजीवोऽथ, स्पष्टदृष्टान्तमन्तरा / दुर्बोधोऽयं त्वया भद्रे, तद् दृष्टान्तं वदाम्यहम् अस्त्यनादिर्नुपादित्यो, नगरे भवनोदरे / प्रिया च संस्थितिस्तस्य, पुत्रो वेल्लहलाभिधः स चाहारप्रियो बाद, स्वादन्नास्ते दिवानिशम् / ततो जातं महाजीर्णमन्तीनो महाज्वरः नैवाहाराभिलाषोऽस्य, तथापि परिहीयते / जातोद्याने जिगमिषा, भक्ष्यभेदाश्च कारिताः . पश्यतस्तान् प्रववृधे, लौल्यं तेन प्रणोदितः / स्तोकस्तोकं स बुभुजे, ततो मित्रगणान्वितः गतो मनोरमोद्याने, निविष्टोऽथ सुखासने / अपश्यदाहृतं भोज्यं, वायुस्पर्शादिना ततः प्रवृद्धोऽन्तरस्तस्य, समयज्ञो भिषग्वरः / / कुमारं ज्वरितं ज्ञात्वा, प्रयत्नेन न्यवारयत् आहाराद् विनिवर्तस्व, छनापवरके व्रज / लङ्घनानि कुरुष्वोच्चैरुदकं वथितं पिब प्रतिक्रियामिमां सर्वां, यदि त्वं न करिष्यसि / भविता सन्निपातस्ते, तदा प्राणप्रयाणकृत् 19 // 470 // // 471 // // 472 // // 473 // // 474 // // 475 //