________________ त्यक्तसङ्गो जीर्णवासा, मलक्लिन्नकलेवरः / / भजन् माधुकरी वृत्तिं, मुनिचर्यां कदा श्रये ? // 312 // त्यजन् दुःशीलसंसर्ग, गुरुपादरजः स्पृशन् / कदाऽहं योगमभ्यस्यन्, प्रभवेयं भवच्छिदे // 313 // महानिशायां प्रकृते, कायोत्सर्गे पुराद् बहिः / / स्तम्भवत् स्कन्धकषणं, वृषा:कुर्युःकदा मयि // 314 // वने पद्मासनासीनं, क्रोडस्थितमृगार्भकम् / . कदाऽऽघ्रास्यन्ति वक्त्रे मां, जरन्तो मृगयूथपाः // 315 // शत्रौ मित्रे तृणे स्त्रैणे, स्वर्णेऽश्मनि मणौ मृदि। . . मोक्षे भवे भविष्यामि, निर्विशेषमतिः कदा // 316 // अधिरोढुं गुणश्रेणि, निश्रेणि मुक्तिवेश्मनः / / परानन्दलताकन्दान्, कुर्यादिति मनोरथान् // 317 // इत्याहोरात्रिकी चर्या-मप्रमत्तः समाचरन् / यथावदुक्तवृत्तस्थो, गृहस्थोऽपि विशुध्यति // 318 // सोऽथावश्यकयोगानां, भने मृत्योरथागमे / कृत्वा संलेखनामादौ, प्रतिपद्य च संयमम् // 319 // जन्मदीक्षाज्ञानमोक्ष-स्थानेषु श्रीमदर्हताम् / तदभावे गृहेऽरण्ये, स्थण्डिले जन्तुवजिते // 320 // त्यक्त्वा चतुर्विधाऽऽहारं, नमस्कारपरायणः / आराधनां विधायोच्च-श्चतुःशरणमाश्रितः // 321 // इहलोके परलोके, जीविते मरणे तथा / त्यक्त्वाऽऽशंसां निदानं च, समाधिसुधयोक्षितः // 322 // परीषहोपसर्गेभ्यो निर्भीको जिनभक्तिभाक् / प्रतिपद्येत मरण-मानन्दः श्रावको यथा // 323 //