________________ मधुपर्के च यज्ञे च, पितृदेवतकर्मणि / अत्रैव पशवो हिंस्या-नान्यत्रेत्यब्रवीन्मनुः // 91 // एष्वर्थेषु पशून् हिंसन, वेदतत्त्वार्थविद्विजः / / आत्मानं च पशुंश्चैव, गमयत्युत्तमां गतिम् (मनुस्मृति 5/39-42) // 92 // ये चक्रुः क्रूरकर्माणः, शास्त्रं हिंसोपदेशकम् / क्व ते यास्यन्ति नरके, नास्तिकेभ्योऽपि नास्तिकाः // 93 // वरं वराकश्चार्वाको, योऽसौ प्रकटनास्तिकः / . वेदोक्तितापसच्छद्म-च्छन्नं रक्षो न जैमिनि // 94 // देवोपहारव्याजेन, यज्ञव्याजेन येऽथवा / . घ्नन्ति जन्तून् गतघृणा, घोरां ते यान्ति दुर्गतिम् // 95 // शमशीलदयामूलं, हित्वा धर्मं जगद्धितम् / अहो हिंसाऽपि, धर्माय, जगदे मन्दबुद्धिभिः // 96 // हविर्यच्चिररात्राय, यच्चानन्त्याय कल्पते / पितृभ्यो विधिवद्दत्तं, तत्प्रवक्ष्याम्यशेषतः // 97 // तिलैर्तीहियवैर्मापै-रद्भिर्मूलफलेन वा / दत्तेन मासं प्रीयन्ते, विधिवत् पितरो नृणाम् // 98 // द्वौ मासौ मत्स्यमांसेन, त्रीन् मासान् हारिणेन तु / ' औरभ्रेणाथ चतुरः, शाकुनेनेह पञ्च तु // 99 // षण्मासांश्छागमांसेन, पार्षतेनेह सप्त वै / अष्टावेणस्य मांसेन, रौरवेण नवैव तु // 100 // दशमासांस्तु तृप्यन्ति, वराहमहिषामिषैः / शशकूर्मयोमा॑सेन, मासानेकादशैव तु // 101 // संवत्सरं तु गव्येन, पयसा पायसेन तु / .. वार्कीणसस्य मांसेन, तृप्तिर्दादशवार्षिकी (मनुस्मृति 3/266-271) // 10 // प४