________________ घटं वेम्यहमित्यत्र, त्रितयं प्रतिभासते। कर्म क्रिया च कर्ता च, तत्कर्ता किं निषिध्यते // 137 // शरीरमेव चेत्कर्तृ, न कर्तृ तदचेतनम् / भूतचैतन्ययोगाच्चे-च्चेतनं तदसङ्गतम् // 138 // मया दृष्टं श्रुतं स्पृष्टं, घ्रातमास्वादितं स्मृतम् / इत्येककर्तुका भावा, भूतचिद्वादिनः कथम् // 139 // स्वसंवेदनतः सिद्धे, स्वदेहे चेतनात्मनि / परदेहेऽपि तत्सिद्धि-रनुमानेन साध्यते // 140 // बुद्धिपूर्वी क्रियां दृष्ट्वा, स्वदेहेऽन्यत्र तद्गतिः / / प्रमाणबलतः सिद्धा, केन नाम निवार्यते ? // 141 // तत्परलोकिनः सिद्धौ, परलोको न दुर्घटः / तथा च पुण्यपापादि, सर्वमेवोपपद्यते // 142 // तपांसि यातनाचित्रा, इत्याद्युन्मत्तभाषितम् / सचेतनस्य तत्कस्य, नोपहासाय जायते // 143 // निर्बाधोऽस्ति ततो जीवः, स्थित्युत्पादव्ययात्मकः / ज्ञाता द्रष्टा गुणी भोक्ता, कर्त्ता कायप्रमाणकः // 144 // तदेवमात्मनः सिद्धौ, हिंसा कि नोपपद्यते / तदस्याः परिहारेणाहिंसाव्रतमुदीरितम् . // 145 // आत्मवत्सर्वभूतेषु, सुखदुःखे प्रियाप्रिये / चिन्तयन्नात्मनोऽनिष्टां, हिंसामन्यस्य नाचरेत् निरर्थिकां न कुर्वीत, जीवेषु स्थावरेष्वपि / हिंसामहिंसाधर्मज्ञः काङ्क्षन्मोक्षमुपासकः // 77 // प्राणी प्राणितलोभेन, यो राज्यमपि मुञ्चति / तद्वधोत्थमघं सर्वो-र्वीदानेऽपि न शाम्यति / પર // 76 // // 78 //