________________ // 52 // // 53 // अजीर्णे भोजनत्यागी, काले भोक्ता च सात्म्यतः / अन्योऽन्याप्रतिबन्धेन, त्रिवर्गमपि साधयन् यथावदंतिथौ साधौ, दीने च प्रतिपत्तिकृत् / सदाऽनभिनिविष्टश्च, पक्षपाती गुणेषु च अदेशाकालयोश्चर्यां, त्यजन् जानन् बलाबलम् / / वृत्तस्थज्ञानवृद्धानां, पूजकः पोष्यपोषक: दीर्घदर्शी विशेषज्ञः, कृतज्ञो लोकवल्लभः / सलज्जः सदयः सौम्यः, परोपकृतिकर्मठः अन्तङ्गारिषड्वर्ग-परिहारपरायणः / वशीकृतेन्द्रियग्रामो, गृहिधर्माय कल्पते // 54 // // 55 // // 56 // अथ द्वितीयप्रकाशः सम्यक्त्वमूलानि पञ्चाणु-व्रतानि गुणास्त्रयः / शिक्षापदानि चत्वारि, व्रतानि गृहमेधिनाम् // 57 // या देवे देवताबुद्धि-गुरौ च गुरुतामतिः / धर्मे च धर्मधीः शुद्धा, सम्यक्त्वमिदमुच्यते . // 58 // मूलं बोधिद्रुमस्यैतत्, द्वारं पुण्यपुरस्य च / पीठं निर्वाणहर्म्यस्य, निधानं सर्वसम्पदाम् // 90 // गुणानामेक आधारो-रत्नानामिव सागरः / / पात्रं चारित्रवित्तस्य, सम्यक्त्वं श्लाघ्यते न कैः // 91 // अवतिष्ठेत नाज्ञानं, जन्तौ सम्यक्त्ववासिते। . प्रचारस्तमसः कीहक्, भुवने भानुभासिते // 92 // तिर्यग्नरकयोद्वरि, दृढा सम्यक्त्वमर्गला / .. देवमानवनिर्वाण-सुखद्वारैककुञ्चिका // 93 // 47