________________ // 4 // // 6 // // 7 // // 8 // // 9 // स्यात्सामान्यविशेषात्म-भवः प्रामाण्यगोचरः / ज्ञेयोऽनेकान्तवादेन, नयमार्गादनेकधा / सामान्यं संग्रहो वक्ति, ऋजुसूत्रो विशेषवाक् / स्वतन्त्रौ नैगमादेतो, लोकोक्त्या व्यवहारधीः मृत्सुवर्णायसां कुम्भा, एक एवाम्बुधारणे / परिमाणाकृतिस्थान-मूल्यैःसर्वे पृथक् पृथक् अपक्वे न जलाहारः, पक्वेऽसौ तौ ततः पृथक् / कुम्भत्वं काणकुम्भेपि, व्यवहारेण मन्यते चत्वारोऽर्थनया एते, परं शब्दे नयत्रयम् / वाच्यवाचकयोर्योगाद्, शाब्दिका वार्थिकाः समे आर्यदेशे धर्म इति, श्रुत्या शब्देन धर्मवान् / देशोऽव्रती व्रती धर्मी, श्राद्धः समभिरूढतः मुनिमुर्निक्रियाविष्ट-स्तन्मुक्तो न मुनिःपुनः। . एवम्भूतनयादेवं, धर्मी सिद्धोस्ति केवली . धर्मी जीव:समग्रोपि, ज्ञानवांश्चेतनारतः। एकेन्द्रियाणामज्ञान-मृजुसूत्रनयार्पणात् वस्तुस्मृत्या भवेद् ज्ञानी, सोऽज्ञानी विस्मृतेर्मतः / नैगमात् शिशुरज्ञानी, व्यवहारदृशोरसात् प्रसुते मूर्छिते मत्ते, न ज्ञानं शाब्दिके नये।.. तदर्शनोपयोगश्च, न ज्ञानीत्यागमे वचः घटं ज्ञात्वा पटज्ञो न, घटज्ञोप्यभिरूढितः / एवम्भूतेन घटज्ञ, एवं सर्वत्र भावना मिथ्यादृष्टिरतोऽज्ञानी, ज्ञानी विमलदर्शनी। यो यत्रानुपयुक्तोयं, द्रव्यजीवस्तदा तथा // 10 // // 11 // . // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // ____173