________________ इन्दुमण्डलसंकाशच्छत्रत्रितयशालिनः / लसद्भामण्डलाभोगविडम्बितविवस्वतः . // 854 // दिव्यदुन्दुभिनिर्घोषगीतसाम्राज्यसम्पदः / रणविरेफझङ्कारमुखराशोकशोभिनः // 855 // सिंहासननिषण्णस्य वीज्यमानस्य चामरैः / सुरासुरशिरोरत्नदीप्रपादनखातेः / // 856. // दिव्यपुष्पोत्कराकीर्णासङ्कीर्णपरिषद्भुवः / उत्कन्धरैर्मृगकुलैः पीयमानकलध्वनेः , // 857 // शान्तवैरेभसिंहादिसमुपासितसन्निधेः / / . प्रभोः समवसरणस्थितस्य परमेष्ठिनः // 858 // सर्वातिशययुक्तस्य केवलज्ञानभास्वंतः / अर्हतो रूपमालम्ब्य ध्यानं पदस्थमुच्यते' // 859 // रागद्वेषमहामोहविकारैरकलङ्कितम् / शान्तं कान्तं मनोहारि सर्वलक्षणलक्षितम् // 860 // तीथिकैरपरिज्ञातयोगमुद्रामनोरमम् / / अक्ष्णोरमन्दमानन्दनिःस्यन्दं दददद्भुतम् // 861 // जिनेन्द्रप्रतिमारूपमपि निर्मलमानसः / निर्निमेषदृशा ध्यायन् रूपस्थध्यानवान् भवेत् // 862 // योगी चाभ्यासयोगेन तन्मयत्वमुपागतः / सर्वज्ञीभूतमात्मानमवलोकयति स्फुटम् // 863 // सर्वज्ञो भगवान् योऽयमहमेवास्मि स ध्रुवम् / एवं तन्मयतां यातः सर्ववेदीति मन्यते // 864 // वीतरागो विमुच्येत वीतरागं विचिन्तयन् / रागिणं तु समालम्ब्य रागी स्यात्क्षोभणादिकृत् . . // 865 // मानसः / 140