________________ // 748 // // 749 // // 750 // // 751 // // 752 // // 753 // विरत: कामभोगेभ्यः स्वशरीरेऽपि निःस्पृहः / संवेगहृदनिर्मग्नः सर्वत्र समतां श्रयन् / नरेन्द्रे वा दरिदे वा तुल्यकल्याणकामनः / अमात्रकरुणापात्रं भवसौख्यपराङ्मुखः सुमेरुरिव निष्कम्पः शशीवानन्ददायकः / समीर इव नि:सङ्गः सुधीर्ध्याता प्रशस्यते पिण्डस्थं च पदस्थं च रूपस्थं रूपवर्जितम् / चतुर्धा ध्येयमाम्नातं ध्यानस्यालम्बनं बुधैः पार्थिवी स्यादथाग्नेयी मारुती वारुणी तथा / तत्रभूः पञ्चमी चेति पिण्डस्थे पञ्च धारणाः तिर्यग्लोकसमं ध्यायेत् क्षीराब्धिं तत्र चाम्बुजम् / सहस्रपत्रं स्वर्णाभं जम्बूद्वीपसमं स्मरेत् तत्केसरततेरन्तः स्फुरत्पिङ्गप्रभाञ्चिताम् / स्वर्णाचलप्रमाणां च कर्णिकां परिचिन्तयेत् . खेतसिंहासनासीनं कर्मनिर्मूलनोद्यतम् / आत्मानं चिन्तयेत्तत्र पार्थिवी धारणेत्यसौ विचिन्तयेत्तथा नाभौ कमलं षोडशच्छदम् / कर्णिकायां महामन्त्रं प्रतिपत्रं स्वरावलिम् रेफबिन्दुकलाक्रान्तं महामन्त्रे यदक्षरम् / अस्य रेफाद्विनिर्यान्ती शनैर्धूमशिखां स्मरेत् / स्कुलिङ्गसंतति ध्यायेज्ज्वालमालामनन्तरम् / ततो ज्वालाकलापेन दहेत् पद्मं हृदि स्थितम् तदष्टकर्मनिर्माणमष्टपत्रमधोमुखम् / . दहत्येव महामन्त्रध्यानोत्थः प्रबलानलः // 754 // // 755 // // 756 // // 757 // // 758 // // 759 // . 00 131