________________ मानं विहाय यतिधर्मविशेषरूपं, सद्यः समाश्रयत मार्दवमेकतानाः // 374 // असूनृतस्य जननी, परशुः शीलशाखिनः / जन्मभूमिरविद्यानां, माया दुर्गतिकारणम् // 341 // कौटिल्यपटवः पापा-मायया बकवृत्तयः / भुवनं वञ्चयमाना, वश्चयन्ते स्वमेव हि // 342 // मi.el. 375 थी 3८०-त्रि.हे.सं. શ્રીધર્મનાથજિનદેશનામધ્યે શ્લોક 65 થી 80 तदार्जवमहौषध्या, जगदानन्दहेतुना / जयेज्जत्गद्रोहकरी, मायां विषधरीमिव // 343 // भi.cो.३८१. थी. ४०२-त्रि.१.सं. શ્રીધર્મનાથ જિનદેશના મધ્યે શ્લોક 82 થી 92 सर्वजिह्यं मृत्युपद-मार्जवं ब्रह्मणः पदम्। एतावाञानविषयः, प्रलापः किं करिष्यति? - // 392 // इति निगदितमुग्रं कर्मकौटिल्यभाजामजुपरिणतिभाजांचानवद्यं चरित्रम्। तदुभयमपि बुद्धया संस्पृशन् मुक्तिकामो, निरुपममृजुभावं संश्रयेच्छुद्धबुद्धिः . // 403 // आकरः सर्वदोषाणां, गुणग्रसनराक्षसः / कन्दो व्यसनवल्लीनां, लोभः सर्वार्थबाधकः // 344 // धनहीनः शतमेकं, सहस्रं शतवानपि / / संहस्राधिपतिर्लक्षं, कोटि लक्षेश्वरोऽपि च // 345 // कोटीश्वरो नरेन्द्रत्वं, नरेन्द्रश्चक्रवर्तिताम् / चक्रवर्ती च देवत्वं, देवोपीन्द्रत्वमिच्छति . // 346 // इन्द्रत्वेऽपि हि संप्राप्ते, यदीच्छा न निवर्तते / मूले लघीयांस्तल्लोभः सराव इव वर्धते // 347 //