________________ महोपाध्यायश्रीजयसोमगणिवरविरचिता // पौषधषट्त्रिंशिका // पसरियनाणपयासं, पासं पणमित्तु सव्वगुणवासं / अइसयरासिसमिद्धं, वंछियदाणेण सुपसिद्धं // 1 // सुरमहिअसुअपओणिहि-मज्झगयं लहिअ सुद्धदिट्ठीए / पोसहवयपरमऽत्थं, दंसेमि जणाण सुहियऽत्थं // 2 // आरंभदोसभारु-व्वहणेण य परिकिलंतचित्तस्स / आसासमिव पोसह-वयं पसंसंति वरगिहिणो पइदियहं सो कीरइ, नियमियपव्वेसु पक्खियाइसु वा / इय पोसहोववासे, विप्पडिवत्ती समक्खाया सव्वेहिं सुयहरेहि, कहियं विहिचरियवायसुत्तेहिं / चाउद्दसऽट्ठमुद्दिट्ठ-पुण्णमासीसु वयमेयं // 5 // तह उद्दिछुपएणं, पसिद्धकल्लाणयाइसु सुतिहीसु / संगहियं वयमेयं, सिरिसीलंगेण बितियंऽगे. चउमासयाऽतिरित्ता, वि पुण्णिमाऽमावसापसिद्धत्ता / उद्दिठ्ठपए निहिया, तेहि वि संवच्छरि व्व तहिं // 7 // तुल्ले वि पसिद्धत्ते, निहियाउ वए एया (इमा) उ नऽन्ना(ओ) उ। तह आगमुत्तमेयासु पक्खियं वन्नियं सत्थे // 8 // // 4 // // 10 // उक्किट्ठसावयाण वि, नियघरवावारविप्पमुक्काणं / पव्वेसु चेव पोसह-पडिमा समयम्मि निद्दिट्ठा तस्सावस्सयतत्तत्थ-सावगपण्णत्तिगंथवित्तीसु / पंचासगचुण्णीए, पइदिणकरणे निसेहो वि 327 // 11 //