________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 16 // // 17 // चारित्राचारविषयं दुष्टमाचरितं मया / तदहं त्रिविधेनापि व्युत्सृजामि समन्ततः यस्तपःस्वतिचारोऽभून्म बाह्याभ्यन्तरेषु च / त्रिविधं त्रिविधेनापि निन्दामि तमहं खलु धर्मानुष्ठानविषयं यद् वीर्य गोपितं मया / वीर्यानारातिचारं च निन्दामि तमपि त्रिधा हतो दुरुक्तश्च मया यो, यस्याऽहारि किञ्चन / यस्यापाकारि किञ्चिद्वा मम क्षाम्यतु सोऽखिलः यश्च मित्रममित्रो वा स्वजनोऽरिजनोऽपि च / सर्वः क्षाम्यतु मे सर्वं सर्वेष्वपि समोऽस्म्यहम् तिर्यक्त्वे सति तिर्यञ्चो, नारकत्वे च नारकाः। . अमरा अमरत्वे च, मानुषत्वे च मानुषाः ये मया स्थापिता दुःखे सर्वे क्षाम्यन्तु ते मम। . क्षाम्याम्यहमपि तेषां, मैत्री सर्वेषु मे खलु जीवितं यौवनं लक्ष्मी रूपं प्रियसमागमः / चलं सर्वमिदं वात्यानर्तिताब्धितरङ्गवत् व्याधि-जन्म-जरा-मृत्युग्रस्तानां प्राणिनामिह / विना जिनोदितं धर्मं शरणं कोऽपि नापरः सर्वेऽपि: जीवाः स्वजना जाता: परजनाश्च ते। विदधीत प्रतिबन्धं तेषु को हि मनामपि ? एक उत्पद्यते जन्तुरेक एव विपद्यते / सुखान्यनुभवत्येको, दुःखान्यपि स एव हि अन्यद् वपुरिदं तावदन्यद् धान्य-धनादिकम् / बन्धवोऽन्येऽन्यश्च जीवो वृथा मुह्यति बालिश: .. 227 // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 //