________________ // 204 // // 205 // // 206 // / 207 // // 208 // // 209 // धृतिः श्री: कीतिरैश्वर्यं सत्यं शौचं दया सुखम् / नश्यन्ति मांसलुब्धानां कुगतिश्च निरर्गला शकलीकृत्य मांसानि ये खादन्ति कुबुद्धयः / स्वात्मानं पातयन्त्येते पवित्रमपि दुर्गतौ यथा प्रीतिः स्वदेहादौ तथा स्यादन्यमूर्तिषु / साम्राज्यन्तस्य सर्वत्र मुक्तिश्च पाणिपङ्कजे दृष्ट्वा नारी यथा कामी धनं दृष्ट्वा च तस्करः / मांसादी च पशून् दृष्ट्वा चाचलीति न संशयः येन कृतानि पुण्यानि येन मांसं न खादितम् / ' फलन्तुल्यन्द्वयोरत्र मनुरप्याह नैगमे विभ्रमो मतिविभ्रंशो दैन्यं व्याधिश्च रौद्रता। निर्दयत्वञ्च पैशाच्यं मांसभोक्तुर्गुणा इमे चर्वयन्ति च ये क्रूराः परास्थीनि रदैरलम् / त एव राक्षसाः सत्यं त एव निरयैषिणः पिशितादनतः श्वभ्रं ययौ पापिनी रेवती। श्रेणिकोऽपि ततो लेभे वेदनां निरयोद्भवाम् न भोक्तव्यमतो मांसं कस्यापि भूतिमिच्छुना। आत्मवद्भावयेत्सर्वं ततः श्रेयो यथा सुखम् कम्पयति शनैर्मोदं सच्चिदानन्ददायकम् / मदिरेयश्च विज्ञेया सत्क्रियामार्गलोपिनी भ्राम्यति मस्तकं पूर्वं नेत्रयोघृणनन्ततः / अङ्गानां मोटनं भूयः पुनर्वैकल्यमात्मनि उच्चाटनञ्च शैथिल्यं मालिन्यं देहसन्धिषु / पतनं स्खलनं भूयः कम्पनं निन्द्यभाषणम् 228 // 210 // . // 211 // // 212 // // 213 // // 214 // // 215 //