________________ // 389 // // 390 // // 391 // // 392 // // 393 // // 394 // चतुर्थपञ्चमज्ञान-वन्दनीयत्वमुक्तयः / कष्टकोट्यापि नाप्यन्ते, विनैकां संयमश्रियम् सबलो निर्बलं हन्या, देषा भाषा मृषा न हि / कि नैकः मनसाराद्ध-संयमो यमभीतिभित् ? वल्लीवृत्तैकवृक्षेऽस्ति, पुष्पमेकं फलद्वयम् / क्रमात्सुस्वादकुस्वादं, शुक्लकृष्णखगोचितम् तनुर्वल्ली द्रुमो जीव: मनःपुष्पं शुभाशुभे / ध्याने फले सौख्यदुःखे, स्वादौ भव्येतरौ खगौ केषाञ्चित् पञ्चपर्वी स्यादष्टमीपाक्षिके अथ / चातुर्मासं वार्षिकं वा, सर्वाहं पर्व धर्मिणाम् कार्या विशेषेण तथाऽप्यागमोक्तेषु पर्वसु / पौषधावश्यकतपो-जिनार्चागुरुवन्दनाः पुण्यरक्षापुटी शुद्धा, येन बद्धान्तरात्मनि / तस्य क्षेमकरं सम्यग्, बलिपर्वाऽस्ति सर्वदा कार्या विजययात्रेयं, दानं यत्राग्रजन्मनि / स्वाद्यते गुरुवाक्सौख्य-भक्षिका पूज्यते शमी सुवस्त्रान्नगृहै: पुण्य-वतां दीपालिका सदा / वर्षान्ते स्वल्पपुण्यानां, निष्पुण्यानां कदापि न यस्मिन् विवेकः श्रीखण्ड, धर्मरङ्गस्तु नागजम् / गुणाश्चूर्णचयः सन्त-स्तं वसन्तं वितन्वते भवारिगर्हिणो दग्ध्वा, दुष्कर्मणां गुणोच्चयैः / रजो विकीर्य चिनीरैः स्नात्वा कुर्वन्तु होलिकाम् सौजन्यं लज्जा मर्यादा, गाम्भीर्यं धैर्यमार्जवम् / दया दक्षत्वमौदार्य, निधीयन्ते गुणा नव // 395 // // 396 // / / 397 // // 398 // // 399 // // 400 //