________________ // 219 // // 220 // // 221 // // 222 / / // 223 // // 224 // परिणीतस्त्रियो भर्तृ-तत्कुटुम्बानुवर्तनम् / गृहकर्मास्वतन्त्रत्वं, प्रसवाद्यसुखं बहु . प्रेमकाले यदि क्वापि, चपलोऽयं मनःकपिः / न स्थिरीक्रियते तर्हि, तदीशात्मा कथं सुखी गृहं न भित्तिस्थूणाद्यं, प्रोच्यते गृहिणी गृहम् / यतोऽस्मादेव देवार्चा-दानपुण्यशुभोत्सवाः कल्याणकार्यधूर्यत्वं, श्रृङ्गारस्वाङ्गसत्क्रियाः / सनाथत्वं शुभा रीतिः, प्रायः स्यात् सत्प्रियात् स्त्रियः चारित्री क्रियया धर्मो, दयया छायया द्रुमः / तपस्वी क्षमया गेही, रमया तमया शशी कार्य शक्त्या वाग्विलासो, युक्त्या भक्त्या विनेयकः / बेलया सागर इव, पुमान् भाति महेलया. विना विवेके सम्पत्ति-विद्या च विनये विना। बिना दानगुणं कीर्तिः, पृथ्वी पृथ्वीपति विना विना प्रतापं प्रभुता, वल्ली तरुवरं विना / विना स्सं यथा वाणी, तथा नारी नरं विना अथान्यत्र समुत्पद्य, शालयो वप्रसंगतीः / लभन्ते फलसम्पत्ति, तथा कन्यावराश्रिता फलन्ति कन्या सद्विद्या, प्रतिष्ठा शालयस्तथा।। स्साद्भूते वरक्षेत्रे, योज्यन्ते यदि युक्तितः माता मातृष्वसा मातुलानी पितृष्वसा स्वसा / नात्मनीनस्तथा पुंसो, यथा जाया रुजादिषु त्रित्वा यथैधते वल्ली, पादपं मण्डपं वृतिम् / तथाङ्गनापि सङ्गत्य, पति पितरमात्मजम् // 225 // // 226 // // 227 // // 228 // // 229 // // 230 //