________________ // 131 // // 132 // // 133 // // 134 // // 135 // // 136 // सत्त्वादिगुणसंपूर्णो राज्याहः स्याद्यथा नरः / एकविंशतिगुणः स्याद् धर्मार्थी मानवस्तथा अक्षुद्रहृदयः सौम्यो रूपवान् जनवल्लभः / अक्रूरो भवभीरुश्चाशठो दाक्षिण्यवान् सदा अपत्रपिष्णुः सदयो मध्यस्थ: सौम्यहा पुनः / गुणरागी सत्कथाढ्यः सुपक्षो दीर्घदर्यपि वृद्धानुगतो विनीतः कृतज्ञः परहितोऽपि च / लब्धलक्ष्यो धर्मरत्नयोग्योऽमीभिर्गुणैर्भवेत् प्रायेण राजदेशस्त्रीभक्तवार्ता त्यजेत्सुधीः / यतो नागमः कश्चित्प्रत्युतानर्थसंभवः सुमित्रैर्बन्धुभिः सार्धं कुर्याद्धर्मकथां मिथः। . विद्वद्भिः सह शास्त्रार्थरहस्यानि विचारयेत् पापबुद्धिर्भवेद्यस्माद् वर्जयेत् तस्य संगतिम् / . कायेन वचनेनापि न्यायं मुञ्चेन्न कर्हिचित् . अवर्णवादं कस्यापि न वदेदुत्तमाग्रणीः / पित्रोर्गुरोः स्वामिनोऽपि राजादिषु विशेषतः मुखैष्टैरनाचारैर्मलिनैर्धर्मनिन्दकैः। दुःशीलोमिभिश्चौरैः संगति वर्जयेदलम् . अज्ञातप्रतिभूः की अज्ञातस्थानदो गृहे। अज्ञातकुलसंबन्धी, अज्ञातभृत्यरक्षकः स्वस्योर्व कोपकर्ता च स्वस्योर्ध्वं रिपुविग्रही। स्वस्योर्ध्वं गुणगर्वी च स्वस्योवं भृत्यसंग्रही उद्धाराहणमोक्षार्थी भोक्ता भृत्यस्य दण्डनात् / दौःस्थ्ये पूजिताशंसी स्वयं स्वगुणवर्णकः 30 // 137 // // 138 // // 139 // // 140 // // 141 // // 142 //