________________ // 39 // // 40 // // 41 // // 42 // // 43 // // 44 // ततः कृतोत्तरासंगः स्थित्वा सद्योगमुद्रया। ततो मधुरया वाचा कुरुते चैत्यवन्दनम् / उदरे कूपर न्यस्य कृत्वा कोशाकृती करौ / अन्योन्याङ्गुलिसंश्लेषाद्योगमुद्रा भवेदियम् पश्चानिजालयं गत्वा कुर्यात्प्राभातिकी क्रियाम् / विदधीत गेहचिन्तां भोजनाच्छादनादिकाम् आदिश्य स्वस्वकार्येषु बन्धून् कर्मकरानपि / पुण्यशालां पुनर्यायादष्टभिर्धीगुणैर्युतः शुश्रूषा श्रवणं चैव ग्रहणं धारणं तथा। ऊहापोहोऽर्थविज्ञानं तत्त्वज्ञानं च धीगुणाः श्रुत्वा धर्मं विजानाति श्रुत्वा त्यजति दुर्मतिम्। . श्रुत्वा ज्ञानमवाप्नोति श्रुत्वा वैराग्यमेति च पञ्चाङ्गप्रणिपातेन गुरून् साधून् परानपि। . उपविशेन्नमस्कृत्य त्यजन्नाशातनां गुरोः उत्तमाङ्गेन पाणिभ्यां जानुभ्यां च भुवस्तलम् / विधिना स्पृशतः सम्यक् पञ्चाङ्गप्रणतिर्भवेत् पर्यस्तिकां न बध्नीयात् न च पादौ प्रसारयेत् / पादोपरि पदं नैव दोर्मूलं न प्रदर्शयेत् / / न पृष्ठे न पुरो नापि पार्श्वयोरुभयोरपि। . स्थेयान्नालापयेदन्यमागतं पूर्वमात्मनः सुधीर्गुरुमुखन्यस्तदृष्टिरेकाग्रमानसः / शृणुयाद्धर्मशास्त्राणि भावभेदविचक्षणः अपाकुर्यात्स्वसंदेहान् जाते व्याख्याक्षणे सुधीः / गुर्वर्हद्गुणगातृभ्यो दद्यादानं निजोचितम् 20 // 45 // // 46 // // 47 // // 48 // // 49 // // 50 //