________________ // 12 // // 13 // // 14 // // 15 // // 16 // परोक्षार्थप्रतिक्षेपात् स्वर्गमोक्षावपळुताम् / साम्यशर्म स्वसंवेद्यं नास्तिकोऽपि न निकुते कविप्रलापरूढेऽस्मिन्नमृते किं विमुह्यते ? स्वसंवेद्यरसं हन्त पेयं साम्यरसायनम् खाद्यलेह्यचूष्यपेयरसेभ्यो विमुखा अपि / पिबन्ति यतयः स्वैरं साम्यामृतरसं मुहुः कण्ठपीठे लुठन् भोगिभोगो मन्दारदाम च / यस्याप्रीत्यै न वा नो वा प्रीत्यै स समतापतिः न गूढं किंचनाचार्यमुष्टिः काचिन्न चापरा / बालानां सुधियां चैकं साम्यं भवरुजौषधम् अतिक्रूरतरं कर्म शान्तानामपि योगिनाम् / यजन्ति साम्यशस्त्रेण रागादीनां कुलानि ते अयं प्रभावः परमः समत्वस्य प्रतीयताम् / . यत्पापिनः क्षणार्धेन पदमृच्छन्ति शाश्वतम् . यस्मिन् सति सफलतामसत्यफलतां व्रजेत् / रत्नत्रयं स्वस्ति तस्मै समत्वाय महौजसे संसर्गेऽप्युपसर्गाणामपि मृत्यावुपस्थिते / न तत्कालोचितं किंचित् साम्यादौपयिकं वरम् एकं मोक्षतरोर्बीजमिहात्यद्भुतशर्मदम् / . तस्मात्साम्यं विधातव्यं रागद्वेषजयैषिणा // 17 // // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // 311