________________ यदि पश्यन्ति गृहस्थाः प्रत्येकं मात्रकाण्युपादाय / आचामेयुर्मुनयस्तदा सशब्दं प्रचुरपयसा // 317 // त्रिविधेन कायसंज्ञा व्युत्सृष्टेति त्रिवेलमुच्चार्य / भिक्षामटन्ति ये तैर्दण्डप्रक्षालनं कार्यम् // 318 // मार्गमपि श्रमणीनां परिहरमाणोऽप्रमद्वरो मौनी / शमितात्मा मुनिवर्गः प्रतिश्रयं प्रतिनिवर्तेत // 319 // तदनु प्रविशन् वसतौ कुरुते नैषेधिकी बृहच्छब्दम् / वदति च नमो खमा-समणाणमिति विनीतविनयः सन् // 320 // लघुरादाय यतीनां दण्डान् मुञ्चेत्प्रमृज्य भिक्षादि / कमयोः प्रमार्जनीयं रजो रजोहरणदशिकाभिः // 321 // अनुगुवी-पथिकी-प्रतिक्रमणपूर्वकं गुरोः पुरतः / गमनागमने आलोच्य स्वाध्यायं प्रकुर्वन्ति // 322 // संयमयोगे विहिते यावद् योगान्तरस्य समयो न / तावत् सर्वत्र मुनिः कुर्यात् स्वाध्यायविधिमेव . // 323 // पूर्ण तृतीययाम ज्ञात्वा च्छायानुमानतः साधुः / गुरवे कथयति यदनु-प्रेक्षा-समयोऽधुना पूज्याः // 324 // प्रथमं सूरिः पश्चात् साधुर्दत्त्वा क्षमाश्रमणमेकम् / प्रतिलेखनां करोमीति वदति. दत्त्वा द्वितीयन्तु // 325 // वसतिं प्रमार्जयामीति भाषतेऽथास्य वस्त्रिकं प्रेक्ष्य / त्यक्तक्रियान्तरः सन् लघुवन्दनकद्वयं दद्यात् तत्रैकेन शरीरप्रेक्षां लघुवन्दनेन सन्देश्य / अन्येनाङ्गप्रति-लेखनां करोमीति भाषेत // 327 // उपवासिनाऽखिलोपधि-पर्यन्ते चोलपट्टकः प्रेक्ष्यः / अन्यैस्तु सर्वप्रथममेव स पश्चाद्रजोहरणम् // 328 // 153