________________ इय सो महाणुभावो, सव्वत्थ वि अविहिभावचाएण। चरिउं विसुद्धधम्मं, अक्खलिआराहओ जाओ // 125 // चेइयदव्वं साहारणं, च जो दुहइ मोहियमईओ / धम्मं च सो न याणइ, अहवा बद्धाउओ नरए // 126 // चेइयदव्वविणासे, तद्दव्वविणासणे दुविहभेए / .. साहू उविक्खमाणो, अणंतसंसारिओ भणिओ // 127 // जोग्गं अईयभावं, मूलुत्तरभावओ अहव कटुं। जाणाहि दुविहमेयं, सपक्खपरपक्खमाई वा // 128 // चेइयदव्वं विभज्ज, करिज्ज कोइ नरो सयट्ठाए। .. . समणं वा सोवहियं, विक्किजा संजयट्ठाए // 129 // एयारिसम्मि दव्वे, समणाणं किं न कप्पए घित्तुं / चेइयदव्वेण कयं, मुल्लेणं जं सुवहियाणं' // 130 // तेणपडिच्छा लोए, वि गरहिया उत्तरे किमंग पुणो / चेइयजइपडिणीया, जो गिण्हइ सो वि हु तहेव .. // 131 // चेइयदव्वं गिण्हित्तु, भुंजए जो उ देइ साहूणं / सो आणा अणवत्थं, पावइ लितो वे दितो वि // 132 // देवद्रव्येण या वृद्धि-गुरुद्रव्येण यद्धनम् / तद्धनं कुलनाशाय, मृतो पि नरकं व्रजेत् // 133 // प्रभास्वे मा मतिं कुर्यात्, प्राणैः कण्ठगतैरपि / अग्निदग्धाः प्ररोहन्ति, प्रमादग्धो न रोहति // 134 // प्रभास्वं ब्रह्महत्या च, दरिद्रस्य च यद्धनम् / गुरुपत्नी देवद्रव्यं, स्वर्गस्थमपि पातयेत् // 135 // एवं जो जिणदव्वं तु, सड्ढो भक्खे उविक्खए / विसं सो भक्खए बालो, जीवियट्ठी न संसओ // 136 // 208