________________ // 36 // // 37 // // 38 // // 40 // // 41 // यतन्ते च सदानन्दसुधानीरधयेऽधिकम् / .. परमब्रह्मसंज्ञाय, पदाय विगतापदे स्मरज्वरज्वरा मुख्या, दोषा भवभुवोऽत्र ये / सर्वथा ते न सन्त्येव, यत्र तत् परमं पदम् सर्व्वकल्याणसंयोगः, सर्वमङ्गलसंगमः / सर्वोपादेयसीमा च, यतस्तन्मृग्यते बुधैः यथाऽमृतरसास्वादी, नान्यत्र रमते जनः / तथा मुक्तिसुखाभिज्ञो, रज्यते न सुखान्तरे तीर्णप्रायभवाम्भोधि—तसम्मोहकश्मलः / कश्चिदेव महाभागो, भवेत्सिद्धिसुखोन्मुखः चौराकुलपथप्राप्तो, यादृशो दुर्गसंग्रहः / गम्भीरसलिलेऽम्भोधौ, द्वीपाप्तिरथवा यथा 'महाशैलगुहायां वा, ज्वलद्रश्मिर्मणिर्यथा / विवेको निर्मलस्तद्वत्पुण्यभाजां विजृम्भते क्रियाभिर्ज्ञानमूलाभिर्मोक्षोऽक्षेपेण सिध्यति / . ताः पुनर्देवतापूजागुरुसेवादयो मताः विशुद्धकेवलालोकविलोकितजगत्त्रयः / प्रातिहार्य्यमहापूजाजनितासमविस्मयः समस्तजगतामेकं, मौलिमाणिक्यमुज्ज्वलम् / अर्हन्नेव सतां देवो, देवतागुणभूषितः गुरुर्गृहीतशास्त्रार्थः, परां नि:सङ्गतां गतः / मार्तण्डमण्डलसमो, भव्याम्भोजविकाशने गुणानां पालनं चैव, तथा वृद्धिश्च जायते / यस्मात्सदैव स गुरुभवकान्तारतायकः 2 // 42 // // 43 // // 44 // // 45 // // 46 // // 47 //