________________ न सा जातिर्न सा योनिन तत् स्थानं जगत्त्रये / / मया विमोहितो जन्तुर्यत्र भ्राम्यति नान्वहम् // 7170 // कुदेवः कुगुरुर्धर्मपर्वव्रतविपर्ययाः / / धर्मद्वेषपराक्षेपावमी नित्यानुगा मम // 7171 // पर्वतो निह्नवाः सप्त कपिल: पालको वसुः। सर्वेऽप्यनार्याः सेवन्ते मां सदा बाह्यपार्षदाः // 7/172 // लाक्षारससदृशाक्षिपातैः संक्षोभयन् जगत् / .. धूमस्तोमसमानाङ्गयष्टिः कोपस्तदावदन् / // 7173 // आविर्भूते मयि स्वं को धीरोऽपि धरितुं क्षमः / मयाक्रान्तो भवत्येव विद्वानपि विचेतनः // 7174 // नेत्रोष्ठभ्रमणं हस्तविक्षेपं गात्रधूननम् / प्रलापांश्च विदधाति सन्निपातीव मद्वशः, // 7 / 175 // बहवो बलवन्तोऽपि मदादेशवशंवदाः / नरकेषु निगोदेषु वसन्ति श्वोरगादिषु // 7/176 // क्षारचण्डत्वदुर्वाक्यशापसंतापविप्लवाः / कलिस्तामसभावश्च ममामी नित्यपाक्षिकाः // 7177 // परिव्राट्कुरुटिमहाकुरुटिब्रह्मसूनवः / शिशुपालनभःसेनाद्याश्च मद्भक्तसेवकाः // 7/178 // अथावददहङ्कारस्त्रिलोकस्याप्यहं क्षमः / सर्वविद्याफलं हर्तुं कर्तुं सद्बुद्ध्ययोग्यताम् // 7179 // . गुरून्न मन्यते वृद्धान् हसत्युज्झति धीनिधीन् / स्तब्धो निरङ्कुशो भ्राम्यत्युन्मत्त इव मद्वशः // 7/180 // जेताषि सार्वभौमस्य रुद्धो बाहुबली मया। . . वर्षमूर्ध्वं स्थितो मृष्यन् क्षुत्तृट्शीतातपापदः . // 7 / 181 // 284