________________ // 741 // // 742 // // 743 // // 744 // // 7145 // // 7 // 46 // तथाविधाध्यवसायास्तदानीं सन्धिपालकाः / / विवेकभूपमभ्येत्यावसरज्ञा व्यजिज्ञपन् न वयं देव ! कस्यापि वारिवनित्यसेवकाः / यं श्रयेम यदा वृक्षवत्तदा वर्धयेम तम् तत्त्वां हिताशया ब्रूमो यद्यपि त्वं विभूयसे / तथापि मोहराजस्ते न ह्यवज्ञातुमर्हति अयं चिरन्तनोऽनेकानीकनियूंढसाहसः / पुत्रैः परिवृतः पत्रैरिव वैश्रवणालयः व्याकोशैरकृशः कोशैः कमलैरिव पल्वलः / सौभाग्यसुन्दरः शूरः साक्षी सकलकर्मणाम् प्रतापाक्रान्तदिक्चक्रः शक्रचक्रिनमस्कृतः / . कृतिस्ततः सहानेन घटते नाहवस्तव चेन्नैकेन त्वयाऽमानि मोहस्तन्न्यूनतास्य का। . असंमतोऽपि हंसस्य वारिदो विश्ववल्लभः . यो बहूनां प्रियस्तेन विरोधो न सुखावहः / / अन्नं जगत्प्रियं तस्मिन्नरुचिः किं न मृत्यवे यामः स्वैरविहारेण यत्र यत्र जगत्त्रये। .. पश्यामस्तत्र तत्रैतन्मोहसैन्यमवस्थितम् . क्व विश्वव्यापिनी मोहसेना सागरजित्वरी। क च ते गोष्पदप्रायं सैन्यमत्यल्पभूस्थितम् त्रिलोक्यां मानुषक्षेत्रे प्रायेणावस्थितिस्तव / तत्रापि कर्मभूमीषु तत्रापि विमले कुले तत्रापि भव्यजीवेषु तत्राप्युबुद्धबोधिषु / मोहस्य तु स्थितिं पश्य त्रिलोके सचराचरे // 7 // 47 // // 748 // // 749 // // 750 // // 751 // // 752 // 273