________________ // 4 // 395 // // 4 / 396 // // 4 // 397 // // 4 // 398 // // 4 // 399 // // 4|400 // यदादिष्टं भगवता विवेकः प्रत्यपादि तत् / . न रुद्धप्रसरं वज्रमिव सत्त्वं हि दोष्मताम् नजपित सत्त्वं हि दोष्मताम तस्य वीरचरित्रेण तुष्टो लोकैकनायकः / पुण्यरङ्गाभिधानस्य पुरस्य प्राभवं ददौ प्रभुस्तं स्माह विमलबोधो यः श्वशुरस्तव / तमेव नगरे स्वीये कुर्यास्त्वं दाण्डपाशिकम् सेवकाः सन्ति ये केचित्तव मोहस्य चान्तिके। नैकरूपकरीं विद्धि सिद्धिमेषां स्वभावतः ततोऽसौ वनपालत्वममुञ्चन्मामके वने। . आदरीता तवाप्युच्चस्तलारक्षकतां पुरे अथासाद्य जिनेशस्य निर्देशं देशनानिधेः / तद्दत्तकतिचिद्भव्यभटमात्रपरिच्छदः / देवध्यानध्वजालोकाभिव्यञ्जितसमागमः / गुरूपदेशवादित्रध्वनिवाचालिताम्बरः मात्रा पुनः पुनर्वीक्ष्यमाणः सानन्दया दृशा। . प्रेमद्रुमवनावन्या प्रणयिन्या समन्वितः लीलयैव ददद्दानमर्थिनामर्थनावधि / गीयमानगुणग्रामो ग्रामणीभिर्महात्मनाम् विवेकस्तत्पुरं प्राप विद्यासिद्ध इव क्षणात् / रूपेण केनचिद्भर्तुरप्यास्थानमनुत्सृजन् महाजनेन तत्रत्येनानन्दोत्फुल्लचक्षुषा / साश्चर्य वीक्षितोऽविक्षत्तत्पुरं सपरिच्छदः तत्र चक्रे तलारक्षं श्वशुरं स्वं रयानृपः / न भर्तुरतिवर्त्तन्ते वचनं हि विशारदाः 212 // 4 / 401 // // 4 / 402 // |4|403 // // 4 / 404 // / / 4 / 405 // ' ||4|406 //