________________ शक्तो ज्ञाता जगत्पाता यद्यसौ तत् क्वचित् क्वचित् / धर्म्यन्ते धार्मिका धर्महीनैः किं तत्र सर्वगे // 4 / 213 // सदोषो न हि निर्दम्भः सदम्भो न हि सत्यवाक् / सदोषेष्वपि विश्वस्ता ये ते ध्वस्ताः स्वकर्मणा // 4 / 214 // योषिज्जपस्रग्जापास्रप्रमुखक्षूणजिते / कया युक्त्योच्यतां विद्भिर्दोषाख्यानं जिनेश्वरे || 4 / 215 // दृग्मध्यस्था मुखं सौम्यं यस्य पद्मासनं ध्रुवम् / शान्तः परिकरस्तत्र देवे दोषोद्भवः कुतः // 4 / 216 // सर्गपालनसंहारास्तदायत्ता जगत्त्रये। . . इति वाक्चापलं सर्गादीनां वैषम्यदर्शनात् // 4 // 217 // सर्गस्थिती सतामेवासतामेव च संहतिम् / यदि लोकेऽत्र पश्यामस्तदा तनैपुणं स्तुमः // 4 // 218 // आत्मदिग्व्योमकालाद्यं वस्तु किञ्चिदकृत्रिमम् / तत्सर्वकर्तृतावादस्तेषां जातोऽर्द्धखण्डितः // 4 / 219 // दौःस्थ्यव्याधी जरा मृत्युनरको गर्भवासिता। . एतानि सृजतां तेषां स्पष्टा लोकविपक्षता // 4 / 220 // चेत्तेऽङ्गिनां फलं दधुः कर्मापेक्ष्य शुभाशुभम् / तत्तदेव प्रमाणं नः किमन्यैस्तन्मुखेक्षिभिः // 4 // 221 // अर्हन् भक्तेष्वभक्तेषु न तुष्यति न रुष्यति / परं प्ररोहतः पुण्यपापे तद्भक्त्यभक्तितः // 4 / 222 // विपक्त्रिमाभ्यां जायेते नृणां ताभ्यां सुखासुखे / तदर्हनपि तत्कर्ता प्रोच्यतामुपचारतः // 4 / 223 // अनुल्लन्ध्यं कृतं कर्म भणतां भवतामपि। प्रमाणमेतदेवास्ति नान्यत्किंचन तत्त्वतः // 4 // 224 // 14