________________ नाहंकाराद्विकारो न च न परिभवो नो कदाशाविलासा, यस्मिन् देवः सं एव ध्रुवशिवपदवीवाञ्छया सद्भिरर्यः // 4 / 202 / / कोऽन्यो देवोऽत्र यों गेहेनर्दी निर्दोषतायशः / वीतरागं विना वोढुं क्षमेतासमविक्रमम् // 4 // 203 // स्त्रिया रागोऽक्षसूत्रेण मोह: शस्त्रैः सरोषता / जापेनाधरता तेषामूचेऽवतरणैर्भवः // 4 / 204 // मुक्ताश्चेदवतीर्णाः किं ज्ञाश्चेत्किं दैत्यसर्गिणः / शान्ताश्चेत्खेलनास्तत्किमाप्ताश्चेत्किमु मायिनः // 4 // 205 // न देवचरितं चरेदिति वचो न चोक्षं यतो, महापुरुषसंश्रितो भुवि न कस्य पन्थाः प्रियः / यथारुचि विचेष्टते गुरुकुलं समुच्छृङ्खलं, विनेयसमिति धृति प्रविनयत्यहो धृष्टता // 4 // 206 // मानुष्यत्वेऽपि ये तत्त्वपरीक्षायामुदासते / मताः पशुगति ते किं तां विधास्यन्ति बालिशाः // 4 // 207 // यद्वा ऋजुजडत्वाद्वश्चेत्परीक्षालसं मनः / . रत्नवस्त्रधनस्वर्णभक्ताज्याम्बुनि तन्न किम् // 4 // 208 // वस्तुन्यल्पसुखार्थेऽपि परीक्षा क्रियते जनैः / सर्वसौख्यप्रदे तत्त्वे युज्यते सा विशेषतः . // 4 // 209 // अंशा एव ह्यमी तत्त्वं यदन्यत्तन्निरञ्जनम् / . इति चेदुच्यते धीरैस्ततस्ताननुयुज्महे // 4 // 210 // तेंशा भिन्ना अभिन्ना वा तस्मान्मुख्यस्वरूपतः / भिन्ना यदि ततस्तेभ्यो मुक्ति वास्मदादिवत् // 4 // 211 // अभिन्नाश्चेत्ततोऽमीषां दोषास्तमधिशेरते. / द्वयाभ्युपगमे द्वन्द्वदोषाः प्राग्वन दुर्वचा: // 4 // 212 // 15