________________ // 3161 // // 3162 / // 3 // 163 // // 3 // 164 // // 3 // 165 // ततश्चपलचेष्टाभिः प्रवृत्तिः प्रीणती प्रियम् / . मायायाश्च जनन्याश्च जनयामास कौतुकम् शान्तगम्भीरवृत्त्याथ निवृत्तिन्विती धवम् / तस्यापि भूभुजश्चापि महासौख्यमवर्द्धयत् एतया सुखितावेतौ विरज्येतां स्म मावयोः / ध्यात्वेति मायादुर्बुद्धी प्रवृत्ति प्रोचतू रह: वत्से ! सेवाव्यवच्छेदो न कार्यः प्रेयसस्त्वया / तत्तदारम्भसम्बन्धैराक्षेप्योऽसावनारतम् , रक्षणीयोऽवकाशोऽस्या निवृत्तेरेकतानया / . अस्यां परमवैरिण्यां न गण्यो वारकात्ययः तयोः शिक्षामिति प्राप्य पापा सा सर्वकर्मवित् / संकल्पतल्पगीकृत्य नित्यं नाथमुपाचरत् / / मा निवृत्त्यैष संगस्त क्वचिदासाद्य विश्रमम् / उपर्युपरि कृत्येषु साऽतः प्रावीवृतत्प्रियम् जन्तुघाते मृषावाचि परद्रव्ये परस्त्रियाम् / मद्ये मांसे च पापर्धी पैशुन्ये द्रोहकर्मसु महारम्भेषु च तथा तया भर्ता प्रवर्तितः / यथा दृशापि नास्पाक्षीनिवृत्तिं दुर्भगामिव उक्षेव तिलयन्त्रस्य सोऽन्वहं भ्रामितस्तया / क्वाप्यनुपदिकव्याधमृगवन्नाप विश्रमम् सोप्यजानन्नृपोऽराङ्क्षीज्जानन्नूनं विरक्ष्यति / भवन्ति यदि वा लोके श्रीमन्तोऽस्थिरसौहदाः परमस्मान्महामात्यात् संपदो मे पदे पदे / इति माया दधौ प्रीतिमधिकामधिकारिणि // 3166 // // 3 // 168 // // 3 / 169 // // 3 / 170 // // 3 / 171 // // 3 / 172 // 100