________________ // 288 // // 2 / 89 // // 2 / 90 // // 2 / 91 // . .. // 292 // // 293 // कृतदीक्षाभिषेकोऽथ सदेवैः स पुरन्दरैः / .. आरूढः शिबिकां दिव्यां स्फुरत्तूर्यत्रयः पुरः दिवं दिविष्ठैर्भूमिष्ठैर्भुवं संकीर्णतां नयन् / गीयमानगुणः पौरैः पुरोपवनमाप्स्यति शिबिकातः समूत्तीर्य त्यक्तालङ्कारपञ्चकः / / ऋभुक्षा भुजमुत्तम्भ्य निषिद्धे तुमुलेऽखिले नमः सिद्धेभ्य इत्युक्त्वा संयम स प्रपत्स्यते / सर्वसावधयोगानां यावज्जीवं निषेधतः / निश्चलो नच्युतः स्थानात् स्वे परे वा समाशयः। आधारः सर्वसत्त्वानां धीरो जनमनोहर: शीतवातातपत्रातसहनः शिखरीव सः। . तपोऽनलबलात् कर्मकक्षवैमुख्यमेष्यति यदा द्वादशवर्षाणि व्रतात्पक्षास्त्रयोदश / अत्येष्यन्ति तदा देवः केवलज्ञानमाप्स्यति सुरैः समवसरणे भुवनाभरणे कृते / स्वामी चामीकरमये निविष्टः सिंहविष्टरे आयोजनविसारिण्या सर्वसत्त्वसमानया / . वाचा प्रारप्स्यते लोके निर्मदे धर्मदेशनाम् प्रतिबुद्धाः प्रभोर्वाचा सदाचारद्भुकुल्यया / सादरा आदरिष्यन्ति बहवः संयमश्रियम् अन्ये तु देशविरतिं सम्यक्त्वमपरे पुनः / कल्पद्रुमेऽपि सम्प्राप्ते न ह्येकरुचयोऽर्थिनः अभिजाते तदा जाते शिष्यजाते गणाधिपाः / एकादश भविष्यन्ति सम्प्राप्य त्रिपदी प्रभोः // 2 / 94 // // 2 / 95 // || 296 // // 297 // // 2 / 98 // / // 299 // 154