________________ वैताढ्योपान्तकान्तारवासी मत्सुकृतेरितः / अत्र वित्रासितो दावेनागानागाधिभूरयम् // 276 // इति ज्ञानेन निश्चित्य स तमारोक्ष्यति द्विपम् / कक्षामितकरस्तोमं व्योममध्यमिवार्यमा // 277 // तदासनगतो ग्रामारामादौ विचरिष्यति / अभ्रमुजानियानस्य विभ्रमं जनयन् जने // 278 // ततः ख्यातः क्षितौ नाम्ना स्वामी विमलवाहनः / भोग्यकर्मक्षयायैव राज्ये स्थास्यति केवलम् // 279 // एत्य लोकान्तिकैर्देवैरन्यदा ब्रह्मलोकतः / विज्ञापयिष्यते भृत्यैरिव प्रस्ताववेदिभिः // 2 // 80 // प्रवर्तय प्रजापाल ! धर्मतीर्थमथो भुवि। . लोकद्वयश्रियां दाने त्वमेव प्रतिभूर्नृणाम् // 2181 // सोथ संवत्सरं स्वर्णधाराभिः कृतवर्षणः / . प्रावृष्येव प्रवर्षन्तं जलदं खलु जेष्यति / // 2182 // तदा घनागमे क्षीणे शरत्कालः प्रथिष्यते / विकसन्मालतीमालागन्धाकृष्टमधुव्रतः // 2183 // सरांसि यस्यां जलपूरितानि, जलानि विस्मेरसरोरुहाणि / सरोरुहाणि प्रसरबिसानि, बिसानि हंसैर्वदने धृतानि // 284 // हंसाश्च हंसीभिरमुक्तपार्धा, हंस्यः सलीलं गतरङ्गभाजः / गतानि रामाभिरुरीकृतानि, शरन सा किं शरदि प्रधाना // 2185 // माधुर्यमिक्षौ पयसि प्रसत्ति, शुचित्वमब्देऽध्वनि पङ्कशुद्धिम् / / वितन्वती तच्छरदत्र चक्रे, यत्साधुचक्रे सुगुरुः करोति // 2 // 86 // तदा स भगवांस्त्रिंशदब्दः पित्रोः प्रमीतयोः / आदित्सुः संयमं सूनौ राज्यभारं निधास्यति // 287 // 153