________________ // 1 / 33 // // 1 // 34 // // 1 / 35 // // 1 / 36 // // 1137 // // 1 / 38 // न गोष्टीच्छुर्नान्यदेशवेषभाषादिपृच्छकः / न गीतादिप्रियो नाक्षिलोलः स खलु साधकः आक्रुष्टो याति न द्वेषं स्तुतो भवति नोन्मनाः / अबाधितसमाधिस्थः स्वस्थो भवति साधक: लवलेशमुहूर्त्तादिक्रमाद्यः सङ्गवर्त्यपि / निःसङ्गतार्थं यतते विद्वंस्तं विद्धि साधकम् कोऽहं कुतः समायातः के च मे बन्धवोऽरयः / क्व गन्ता किं च पाथेयमेवं ध्यायति सोऽनिशम् ज्ञाततत्त्वतया वेत्ति लोकवृत्तं विसंस्युलम् / तथापि कुरुते नैव स्वात्मोक्तर्षान्यगर्हणे योगी शैलाणुवज्जानन्नप्याध्यात्मिकबाह्ययोः / . धर्मयोरन्तरं भिन्ते व्यवहारं गिरापि न शृण्वन्नप्येडवद्योगी पश्यन्नप्यन्धवद्धृवम् / .. वक्तापि मूकवद्विद्वानपि बालसमो भवेत्. . आदौ लक्ष्ये ततो लक्ष्यं विनापि द्रढयन्मनः / नित्याभ्यासी सुखं धीमानुन्मनीभावमश्नुते शान्ते स्वान्ते निजग्राह्यान्निवृत्ते चेन्द्रियव्रजे / सुधीरविच्युतः स्थानादात्मन्यात्मानमीक्षते . ध्यानत्रयमतिक्रम्य रूपातीतमुपागतः / . आत्मा स्वस्थः स्वरूपस्थः प्राप्नोति परमात्मताम् आत्मासौ द्विविधो ज्ञेयो भव्याभव्यस्वरूपतः / भविष्यत्सिद्धिपर्यायो भव्योऽभव्यस्त्ववनीदृशः सिद्धिगोपि त्रिधा दूरासन्नमध्यमभेदतः / योऽपार्धपुद्गलस्यान्ते सेद्धाऽसौ दूरसिद्धिक: // 1 / 39 // // 1 / 40 // // 1 // 41 // // 1 / 42 // // 1 / 43 // // 1 // 44 // - 145