________________ // 324 // // 325 // // 326 // // 327 // // 328 // // 329 // सामग्री प्राप्य सम्पूर्णा यो विजेतुं निरुद्यमः / विषयारिमहासैन्यं तस्य जन्म निरर्थकम् निरवद्यं वदेद् वाक्यं मधुरं हितमर्थवत् / प्राणिनां चेत आह्लादि मिथ्यावादबहिष्कृतम् प्रियवाक्यप्रदानेन सर्वे तुष्यन्ति जन्तवः / तस्मात्तदेव कर्तव्यं किं वाक्येऽपि दरिद्रता ? व्रतं शीलं तपो दानं संयमो-हत्प्रपूजनम् / दुःखविच्छित्तये सर्वं प्रोक्तमेतन्न संशयः तृणतुल्यं परद्रव्यं परं च स्वशरीरवत् / / पररामां समां मातुः पश्यन् याति परं पदम् सम्यक्त्वात् समतायोगानिःसङ्गात् सहनात्तथा / कषायविषयाऽसङ्गात् कर्मणां निर्जरा परा आर्हन्त्यं महिमोपेतं सर्वशं परमेश्वरम् / ध्यायेद् देवेन्द्रचन्द्रार्कसभान्तःस्थं स्वयम्भुवम् .. सर्वातिशयसम्पूर्ण दिव्यलक्षणलक्षितम् / सर्वभूतहितं देवं शीलशैलेन्द्रशेखरम् घातिकर्मविनिर्मुक्तं मोक्षलक्ष्मीकटक्षितम् / अनन्तमहिमायुक्तं त्रयोदशगुणस्थितम् अनन्तचरितं चारुचारित्रसमुपासितम् / विचित्रनयनिर्णीतं विश्वं विश्वैकवत्सलम् निरुद्धकरणग्रामं निषिद्धविषयद्विषम् / ध्वस्तरागादिसन्तानं भवज्वलनवार्मुचम् दिव्यरूपधरं धीरं विशुद्धज्ञानलोचनम् / . अपि त्रिदश-योगीन्द्रकल्पनातीतवैभवम् * // 330 // // 331 // // 332 // // 333 // // 334 // // 335 // 148