________________ // 132 // // 133 // // 134 // // 135 // // 137 // सवृत्ताद् भ्रष्टचित्तानां विषयासङ्गसङ्गिनाम् / तेषामिहैव दुःखानि भवन्ति नरकेषु च विषयास्वादलुब्धेन रागद्वेषवशात्मना / आत्मा सुवञ्चितस्तेन यः शमं नापि सेवते आत्मना यत्कृतं कर्म भोक्तव्यं तदनेकधा / / तस्मात् कर्माश्रवं रुद्धवा स्वेन्द्रियाणि वशं नय इन्द्रियप्रसरं रुद्ध्वा स्वात्मानं वशमानय / येन निर्वाणसौख्यस्य भाजनत्वं प्रपत्स्यसे सम्पन्नेष्वपि भोगेषु महतां नास्ति गृध्नुता / अन्येषां गृद्धिरेवाऽस्ति शमस्तु न कदाचन षट्खण्डाधिपतिश्चक्री परित्यज्य वसुन्धराम् / तृणवत् सर्वभोगांश्च दीक्षां भागवतीं श्रितः कृमितुल्यैः किमस्माभिर्भोक्तव्यं वस्तु सुन्दरम् / येनात्र गृहपङ्केषु सीदामः किमनर्थकम् ? येन ते जनितं दुःखं भवाम्भोधौ सुदुस्तरम् / . तं कर्मारातिमत्युग्रं विजेतुं किं न वाञ्छसि ? अब्रह्मचारिणो नित्यं मांसभक्षणतत्पराः / शुचित्वं तेऽपि मन्यन्ते किं नु चित्रमतः परम् ? . येन संक्षीयते कर्म संचयश्च न जायते / तदेवात्मविदा कार्यं मोक्षसौख्याभिलाषिणा अनेकशस्त्वया प्राप्ता विविधा भोगसम्पदः / अप्सरोगणसङ्कीर्णे दिवि देवविराजिते पुनश्च नरके रौद्रे रौरवेऽत्यन्तभीतिदे। नानाप्रकारदुःखौधे संस्थितोऽसि विधेर्वशात् . // 138 // // 139 // // 140 // // 141 // // 142 // // 143 // 120