________________ // 156 // // 157 // // 158 // जइवि हु उत्तमसावय-पयडीए चडणकरण असमत्थो / तह वि पहुवयणकरणे मणोरहो मज्झ हिययम्मि ता पहु पणमिय चरणे इक्कं पत्थेमि परमभावेण / तुह वयणरयणगहणे मणोरहो मज्झ हुज्ज सया इह मिच्छवासनिक्किट्ठ-भावओ गलियगुरुविवेयाणं / अम्हाण कह सुहाइं संभाविजंति सुमणे वि जं जीवियमित्तं पि हु धरेमि नामं च सावयाणं पि / तं पि पहु महाचुज्जं अइविसमे दूसमे काले परिभाविऊण एवं तह सुगुरु करेज्ज अम्ह सामित्तं / पहुसामग्गिसुजोगे जह सहलं होइ मणुअत्तं एवं भंडारियनेमिचंदरइयाओ कइ वि गाहाओ। विहिमग्गरया भव्वा पढंतु जाणंतु जंतु सिवं // 159 // // 160 // // 161 // // 1 // - // स्वोपज्ञवृत्तिप्रशस्तिश्लोकाः // इह न हि पुनरुक्तं नापि सम्बन्धबाध्यं, . भवति हि गणनीयं नापि निर्लक्षणत्वम् / जिनवरमतभक्तेर्दुष्टसंसर्गमुक्त्यै कृतमिदमतिहर्षान्नेमिचन्द्रेण यस्मात् न टीका नो चूर्णिर्न च गुरुजनाम्नायविशदा, . मतिः कांऽप्येतस्मिन् प्रकरणवरे प्राक्श्रुतवरा / परं कश्चित्कश्चित्तदपि लिलिखेऽर्थः क्वचिदयं, यथा ज्ञातः स्वस्य स्मरणविधये सज्जनगिरा तस्माद्यन्मतिमान्द्यतो दृढतसम्नायस्य चाभावतस्तत्ताहक्समयावगाहविराहाद्दुदृष्टिरागादपि / // 2 //