________________ // 84 // // 85 // // 86 // // 87 // // 88 // // 89 // युगेऽस्मिन् केवलज्ञानवजिते वरमल्पवित् / राणक: काणको यद्वच्चक्षुर्विकलपर्षदि करणे कथने भिन्ना, आदेशाः परवादिनाम् / दर्शने भक्षणे यद्वदन्तिदन्ताः पृथक् पृथग् उत्सूत्रभाषणं पूर्वं, पुनः क्रोधेन मिश्रितम् / सर्वथा परिहर्त्तव्यं, लशुनं हिङ्गुसंस्कृतम् तृणैराच्छादितो वह्निरवश्यं प्रकटीभवेत् / माययाऽऽच्छादितं तद्वदुत्सूत्रं मनसि स्थितम् मधुरवचनेन युक्तं सर्वं हितमेव वेत्ति न त्वहितम् / सकलं धवलं दुग्धं पश्यति बालस्तु नो तक्रम् सहसा विहिते कार्ये, पृच्छया किं विवेकिनाम् ? / विवाहे विहिते लग्नपृच्छया किं प्रयोजनम् ? यथोप्तमूषरे क्षेत्रे, धान्यं धान्यधनेच्छया / धर्मबुद्ध्या तथा दानं, कुपात्रे निष्प्रयोजनम् दातुर्दानं यथा स्वल्पमनल्पं न विचार्यते / धर्मधनोस्तथा दन्ता न विलोक्या हि धीधनैः भवितव्यं भवत्येव, परं सततमुद्यमः / कर्तव्योऽपरथा सर्वेऽलसाः स्युः सर्वकर्मसु वशा सुशीला सुकुला, शीलं धरति दुर्धरम् / / दृढपाढा यथा भित्तिर्भार वहति सद्मनः पयः पश्यति मार्जारचण्डं दण्डं न पश्यति / तथा पराङ्गनारङ्गं, मूढः पश्यति नायतिम् न याति सद्गतौ जन्तुः, कुतो विषयसंयुतः ? / उन्दुरुर्न बिले माति, कुतः सन्मार्जिनीयुतः? // 90 // // 91 // // 92 // // 93 // // 94 // // 95 // . 221