________________ // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // . // 28 // // 29 // यदभावे सुषुप्तोऽहं, यद्भावे व्युत्थितः पुनः / अतीन्द्रियमनिर्देश्य, तत्स्वसंवेद्यमस्म्यहम् क्षीयन्तेऽत्रैव रागाद्यास्तत्वतो मां प्रपश्यतः / बोधात्मानं ततःकश्चिन्न मे शत्रुर्न च प्रियः मामपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः / मां प्रपश्यन्नयं लोको, न मे शत्रुर्न च प्रियः त्यक्वैवं बहिरात्मानमन्तरात्मव्यवस्थितः / भावयेत्परमात्मानं, सर्वसंकल्पवर्जितः सोऽहमित्यात्तसंस्कारस्तस्मिन्भावनया पुनः / तत्रैव दृढसंस्काराल्लभते ह्यात्मनःस्थितिम् मूढात्मा यत्र विश्वस्तस्ततो नान्यद्भयास्पदम् / यतो भीतस्ततो नान्यदभयस्थानमात्मनः सर्वन्द्रियाणि संयम्य, स्तिमितेनान्तरात्मना। यत्क्षणं पश्यतो भाति, तत्तत्वं, परमात्मनः यः परात्मा स एवाहं, योऽहं स परमस्ततः / अहमेव मयोपास्यो, नान्यः कश्चिदिति स्थितिः प्राच्याव्य विषयेभ्योऽहं, मा मयैव मयि स्थितम् / बोधात्मानं प्रपन्नोऽस्मि, परमानन्दनिर्वृत्तम् यो न वेत्ति परं देहादेवमात्मानमव्ययम्। . लभते न स निर्वाणं, तत्त्वापि परमं तपः ' आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्वादनिर्वृतः / तपसा दुष्कृतं घोरं, भुञ्जानोऽपि न खिद्यते रागद्वेषादिकल्लोलैरलोलं, यन्मनोजलम् / स पश्यात्यात्मनस्तत्त्वं, स तत्त्वं नेतरो जनः 151 // 30 // // 31 // // 32 // // 33 // // 34 // // 35 //