________________ // 89 // / / 90 // // 91 // // 92 // / / 93 // // 94 // विदलद्बन्धकर्माण-मद्भुतां समतातरीम् / आरुह्य तरसा योगिन् !, तस्य पारीणतां श्रय शीर्णपर्णाशनप्रायै-य॑न्मुनिस्तप्यते तपः / औदासीन्यं विना विद्धि, तद् भस्मनि हुतोपमम् येनैव तपसा प्राणी, मुच्यते भवसन्ततेः / तदेव कस्यचिन्मोहाद्, भवेद् भवनिबन्धनम् सन्तोषः सम्भवत्येष, विषयोपप्लवं विना / तेन निर्विषयं कञ्चि-दानन्दं जनयत्ययम् वशीभवन्ति सुन्दर्यः, पुंसां व्यक्तमनीहया / यत्परब्रह्मसंवित्ति-निरीहं श्लिष्यति स्वयम् सूते सुमनसां कञ्चिदा-मोदं समता लता। यद्वशादाप्नुयुः सख्य-सौरभं नित्यवैरिणः साम्यब्रह्मास्त्रमादाय, विजयन्तां मुमुक्षवः / मायाविनीमिमां मोह-रक्षोराजपताकिनीम् मा मुहः कविसङ्कल्प-कल्पितामृतलिप्सया। .. निरामयपदप्राप्त्यै, सेवस्व समतासुधाम् योगग्रन्थमहाम्भोधि-मवमथ्य मनोमथा। साम्यामृतं समासाद्य, सद्यः प्राप्नुहि निर्वृत्तिम् मैत्र्यादिवासनामोद-सुरभीकृतदिङ्मुखम् / , पुमांसं ध्रुवमायान्ति, सिद्धिभृङ्गाङ्गनाः स्वयम् औदासीन्योल्लसन्मैत्री-पवित्रं वीतसम्भ्रमम् / कोपादिव विमुञ्चन्ति, स्वयं कर्माणि पुरुषम् योगश्रद्धालवो ये तु, नित्यकर्मण्युदासते / प्रथमे मुग्धबुद्धीना-मुभयभ्रंशिनो हि ते // 95 // // 96 // // 97 // // 98 // // 99 // // 100 // 140