________________ // 18 // // 19 // // 20 // // 21 // // 22 // // 23 // निमित्तं सत्प्रणामादेर्भद्रमूर्तेरमुष्य च / शुभो निमित्तसंयोगोऽवञ्चकोदयतो मतः योगक्रियाफलाख्यं च साधुभ्योऽवञ्चकत्रयम् / श्रुतः समाधिरव्यक्त इषुलक्ष्यक्रियोपमः हेतुरत्रान्तरङ्गश्च तथा भावमलाल्पता / ज्योत्स्नादाविव रत्नादिमलापगम उच्यते सत्सु सत्त्वधियं हन्त मले तीव्र लभेत कः / अङ्गुल्या न स्पृशेत् पङ्गुः शाखां सुमहतस्तरोः वीक्ष्यते स्वल्परोगस्य चेष्टा चेष्टार्थसिद्धये / स्वल्पकर्ममलस्यापि तथा प्रकृतकर्मणि यथाप्रवृत्तकरणे चरमे चेदृशी स्थितिः / तत्त्वतोऽपूर्वमेवेदमपूर्वासत्तितो विदुः प्रवर्तते गुणस्थानपदं मिथ्यादृशीह यत् / . अन्वर्थयोजना नूनमस्यां तस्योपपद्यते व्यक्तमिथ्यात्वधीप्राप्तिरप्यन्यत्रेयमुच्यते / घने मले विशेषस्तु व्यक्ताव्यक्तधियोर्नु कः यमः सद्योगमूलस्तु रुचिवृद्धिनिबन्धनम् / शुक्लपक्षद्वितीयाया योगश्चन्द्रमसो यथा उत्कर्षादपकर्षाच्च शुद्ध्यशुद्ध्योरयं गुणः / मित्रायामपुनर्बन्धात् कर्मणां स प्रवर्तते गुणाभासस्त्वकल्याणमित्रयोगे न कश्चन / अनिवृत्ताग्रहत्वेनाभ्यन्तरज्वरसन्निभः मुग्धः सद्योगतो धत्ते गुणं दोषं विपर्ययात् / स्फटिको नु विधत्ते हि शोणश्यामसुमत्विषम् 189 // 24 // // 25 // // 26 // // 27 // // 28 // // 29 //