________________ // 27 // // 28 // // 29 // पदार्थमात्ररसिकस्ततोऽनुपकृतोपकृत् / अगूढलो भगवान् महानित्येष मे मतिः अर्हमित्यक्षरं यस्य चित्ते स्फुरति सर्वदा / परं ब्रह्म ततः शब्दब्रह्मणः सोऽधिगच्छति पर:सहस्राः शरदां परे योगमुपासताम् / हन्तार्हन्तमनासेव्य गन्तारो न परं पदम् आत्मायमर्हतो ध्यानात्परमात्मत्वमश्नुते / रसविद्धं यथा तानं स्वर्णत्वमधिगच्छति पूज्योऽयं स्मरणीयोऽयं सेवनीयोऽयमादरात् / अस्यैव शासने भक्तिः कार्या चेच्चेतनास्ति वः सारमेतन्मया लब्धं श्रुताब्धेरवगाहनात् / भक्तिर्भागवती बीजं परमानन्दसंपदाम् // 30 // // 31 // . // 32 // // 1 // // 2 // भक्तिद्वात्रिंशिका // 5 // श्रमणानामियं पूर्णा सूत्रोक्ताचारपालनात् / द्रव्यस्तवाद्गृहस्थानां देशतस्तद्विधिस्त्वयम् न्यायार्जितधनो धीरः सदाचारः शुभाशयः / भवनं कारयेज्जैनं गृही गुर्वादिसंमतः तत्र शुद्धां महीमादौ गृह्णीयाच्छास्त्रनीतितः / परोपतापरहितां भविष्यद्भद्रसन्ततिम् अप्रीति व कस्यापि कार्या धर्मोद्यतेन वै / इत्थं शुभानुबन्धः स्यादत्रोदाहरणं प्रभुः आसन्नोऽपि जनस्तत्र मान्यो दानादिना यतः / इत्थं शुभाशयस्फात्या बोधिवृद्धिः शरीरिणाम् // 3 // // 4 // // 5 // 143