________________ // 72 // // 73 // // 74 // // 75 // // 76 // // 77 // अविद्याक्लेशकर्मादि यतश्च भवकारणम् / ततः प्रधानमेवैतत्संज्ञाभेदमुपागतम् अस्यापि योऽपो भेदश्चित्रोपाधिस्तथा तथा / गीयतेऽतीतहेतुभ्यो धीमतां सोऽप्यपार्थकः ततोऽस्थानप्रयासोऽयं यत्तद्भेदनिरूपणम् / सामान्यमनुमानस्य यतश्च विषयो मतः संक्षिप्तरुचिजिज्ञासोविशेषानवलम्बनम् / चारिसंजीवनीचारज्ञातादत्रोपयुज्यते जिज्ञासापि. सतां न्याय्या यत्परेऽपि वदन्त्यदः / जिज्ञासुरपि योगस्य शब्दब्रह्मातिवर्त्तते आर्को जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी चेति चतुर्विधाः / उपासकास्त्रयस्तत्र धन्या वस्तुविशेषतः ज्ञानी तु शान्तविक्षेपो नित्यभक्तिविशिष्यते / अत्यासन्नो ह्यसौ भर्तुरन्तरात्मा सदाशयः कर्मयोगविशुद्धस्तज्ज्ञाने युञ्जीत मानसम् / अज्ञश्चाश्रद्दधानश्च संशयानो विनश्यति निर्भयः स्थिरनासाग्रदत्तदृष्टिव॑ते स्थितः / सुखासनः प्रसन्नास्यो दिशश्चानवलोकयन् देहमध्यशिरोग्रीवमवक्रं धारयन्बुधः / / दन्तरसंस्पृशन् दन्तान् सुश्लिष्टाधरपल्लव: आर्त्तरौद्रे परित्यज्य धर्म्य शुक्ले च दत्तधीः / अप्रमत्तो रतो ध्याने ज्ञानयोगी भवेन्मुनिः कर्मयोगं समभ्यस्य ज्ञानयोगसमाहितः / ध्यानयोगं समारुह्य मुक्तियोगं प्रपद्यते GO // 78 // // 79 // // 80 // // 81 // // 82 // // 83 //