________________ // 347 // // 348 // // 349 // // 350 // / / 351 // // 352 // प्रक्रान्ताद्यदनुष्ठानादौचित्येनोत्तरं भवेत् / . तदाश्रित्योपदेशोऽपि ज्ञेयो विद्यादिगोचरः प्रकृतेर्वाऽऽनुगुण्येन चित्रः सद्भावसाधनः / गम्भीरोक्त्या मितश्चैव शास्त्राध्ययनपूर्वकः शिरोदकसमो भाव आत्मन्येव व्यवस्थितः / प्रवृत्तिरस्य विज्ञेया चाभिव्यक्तिस्ततस्ततः सत्क्षयोपशमात्सर्वमनुष्ठानं शुभं मतम् / क्षीणसंसारचक्राणां ग्रन्थिभेदादयं यतः भाववृद्धिरतोऽवश्यं सानुबन्धं शुभोदयम् / गीयतेऽन्यैरपि ह्येतत्सुवर्णघटसन्निभम् एवं तु वर्तमानोऽयं चारित्री जायते ततः / पल्योपमपृथक्त्वेन विनिवृत्तेन कर्मणः लिङ्गं मार्गानुसार्येष श्राद्धः प्रज्ञापनाप्रियः / गुणरागी महासत्त्वः सच्छक्त्यारम्भसङ्गतः असातोदयशून्योऽन्धः कान्तारपतितो यथा। गर्तादिपरिहारेण सम्यक्तत्राभिगच्छति तथायं भवकान्तारे पापादिपरिहारतः / श्रुतचक्षुर्विहीनोऽपि सत्सातोदयसंयुतः अनीदृशस्य तु पुनश्चारित्रं शब्दमात्रकम् / ईदृशस्यापि वैकल्यं विचित्रत्वेन कर्मणाम् देशादिभेदतश्चित्रमिदं चोक्तं महात्मभिः / अत्र पूर्वोदितो योगोऽध्यात्मादिः सम्प्रवर्तते औचित्याद्वृत्तयुक्तस्य वचनात्तत्त्वचिन्तनम् / मैत्र्यादिसारमत्यन्तमध्यात्मं तद्विदो विदुः 242 // 353 // // 354 // // 355 // // 356 // // 357 // // 358 //