________________ चरमम्मि वि कह हेऊ ? न किंचि कुव्वंति जे विणासस्स / भावे य सदाभावा एसि खणभंगसिद्धि ति // 408 // अन्नं च नस्सरो वा सहावतो होज्ज अणस्सरो वा वि ? / भावो णस्सरपक्खे नासे किं हेतुणा तस्स ? // 409 // नो अन्नमिह स भावो भावे भावस्सऽवेक्खए हेउं / काठिन्नादी पुढवादिणं च तद्धेतुओ चेव // 410 // अतदुब्भवत्तणम्मि य पावइ तस्स णणु निस्सहावत्तं / अह णस्सरो त्ति एवं पि नासहेऊ विधा तस्स // 411 // नहि भावाउ सहावो तीरइ अन्नेण अन्नहा काउं / गयणस्सवऽमुत्तत्तं नय दुसहावो विरोधातो // 412 // किंच सहेउगपक्खे कज्जस्स व तस्स पावती नासो / तण्णासम्मि य भावो पुव्वविणट्ठस्स भावस्स // 413 // न य सो हवेज्ज नियमा कयगाण वि कारणंतरावेक्खो / वत्थस्स जहा रागो कयगो वि ततो न नासेज्जा // 414 // को वि कदाई भावो कारणविरहातो तस्स भावे वि। नहि कारणाई नियमेण होति जं कज्जवंताई // 415 // ता भावहेतवो च्चिय कुणंति पयईएँ नस्सरे भावे / उप्पत्तणंतरं चिय ते विविणस्संति तो. खणिगा // 416 // निरहेउगो विणासो अहव सहेऊ निरस्थिगा चित्ता (चिंता)। नहि एत्थऽणवत्थाणं परिणामे सव्वहा अत्थि // 417 // जं तं चिय परिणमए पतिसमयं चित्तकारणं पप्प / / दलविरहातो अन्नह जुज्जइ न फलं तु भणियमिणं // 418 // अह तं पुव्वं रूवं चइऊण तहा हवेज्ज नियमेण / / तदभावे तदभावो अतादवत्थं चऽनिच्चत्तं // 419 // - 34