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________________ खास जरूरी सूचना. देवद्रव्य संबंधी विवाद का मेरे साथ शास्त्रार्थ करना मंजूर किया, इसके लिये ही खास मेरेको इन्दोर बुलवाया, मगर शास्त्रार्थ में सत्य ग्रहण करने का व झूठ का मिच्छामि दुक्कडं देनेका स्वीकार किया नहीं. तथा शास्त्रार्थ करनेवाले किसी भी मुनिका नामभी जाहिर नहीं किया. और मेरे पत्रोंका न्याय से कुछभी जब ब न देकर, फजूल आडी टेढी बात लिखकर अपना बचाव करने के लिये " तुम्हारी जीभ लम्बी हो रही है; उसका कुछ उपाय करावें. यदि विशेप लम्बी हो जायगी तो दुःख के साथ उसका उपाय हमको करना पड़ेगा।" इत्यादि वाक्योंसे क्रोध, निंदा, अंगत आक्षेप घ मारामारी जैसी प्रवृत्ति करने की तयारी बतलाई और शास्त्रार्थ की बात को संघ की आड लेकर उडादी. मैं पहिले ही चैत्र वदी 10 के पत्रकी 5-6 कलम में, तथा चैत्र सुदी 9 के पत्रकी 3-4-5 कलम में साफ खुलासा लिख चुका हूं. ( देखो पत्रव्यवहार के पृष्ट 13-16-17) उस प्रकार की व्यवस्था होने से " न संघ बीच में पडे, न शास्त्रार्थ हम को करना पडे और न हमारे झूठकी प्रोल खुले " इसलिये बारबार हरएक पत्रमें संघकी बात लिखना और शास्त्रार्थ से मुंह छुपाना. यह तो प्रकटही कपटबाजीसे अपनी कमजोरी जाहिर करना है, पाठणगण इस बात का आपही विचार करसकते हैं. ___और दूसरी बात यह है कि यह शास्त्रार्थ आपस में साधुओं साधुओरा ही है, श्रावकों श्रावकोंके आपसका नहीं है, इसलिये साधुओं को ही मिलकर इसका निर्णय करना चाहिये. और श्रावक लोग तो जैसे व्याख्यान में सत्य धर्म अंगीकार करने को आते हैं, वैसे ही इस शास्त्रार्थ की सभा में भी श्रावकों को सत्यके अभिलाषी जिज्ञासु के रूप में आना योग्य है और यहां के कई श्रावक तो आप के बचाव के लिये
SR No.004449
Book TitleDevdravya Nirnay Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorManisagar
PublisherJinkrupachandrasuri Gyanbhandar
Publication Year1917
Total Pages96
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size10 MB
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