________________ यह तो इस श्लोक का शब्दार्थ हुआ। अब इसके सम्पूर्ण अर्थ को देखिए-'देवसम्बन्धित किराये को जो तोड़ता है, स्वीकृत धन को नहीं देता है और देवद्रव्य के दूषितकर्ता की उपेक्षा करता है, वह निश्चित ही संसार में परिभ्रमण करता है।' - इसमें बोली या किसी भी रिवाज सम्बन्धी कुछ आया है क्या? यदि नहीं आया है तो फिर इस पाठ को प्रस्तुत करने से क्या प्रयोजन ? द्रव्य सप्तति के टीकाकार ने भी 'आयाणं' का क्या अर्थ किया है ? वह भी देखिए-आयाणमिति व्याख्या-आदानं तृष्णाग्रहप्रस्तत्वात् देवादिसत्कं भाटकं यो भनक्ति-अर्थात्टीकाकार तो 'आयाणं' शब्द का अर्थ देवसम्बन्धी (देवद्रव्य के मकान सम्बन्धी) किराया ही करते हैं। ठीक भी है, 'मैं इतना किराया दूंगा' यह स्वीकार करने के पश्चात् वह नहीं दे या किराया तोड़ दे तो वह संसार में परिभ्रमण करता है यह तो स्पष्ट ही है। ___ उपर्युक्त गाथा दर्शनशुद्धि के . पृष्ठ 46 में भी है / दर्शनशुद्धि में वह गाथा इस प्रकार से दी है आयाणं जो भंजइ पडिवन्नं धणं न देइ देवस्य / नस्संतं समुवेक्खइ सोविहु परिभमइ संसारे // 55 // इस गाथा का अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है फिर भी