SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 54
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 46 ) जिन धन धान्यादि के अर्पण की कल्पना की हो, उनको देवद्रव्य कहना चाहिए। .. - तात्पर्य यह कि जब तक किसी भी वस्तु (द्रव्यादि) को किसी भी कार्य में समर्पण करने का दृढ़संकल्प नहीं किया हो तब तक वह वस्तु उस खाते की हो ही नहीं सकती है। शास्त्र में दृष्टान्त आता है कि 'मृग' नामक ब्राह्मण जो जैन था, उसने प्रभुपूजार्थ स्वपत्नी से भोजन . तैयार करवाया, भोजन तैयार हो गया, इतने में एक मुनि भिक्षार्थ वहाँ पहुँच गये। उस समय ब्राह्मण ने अपनो स्त्री एवं वारुणी नामकी पुत्री के साथ उस भोजन में से थोड़ा आहार अत्यधिक भावपूर्वक साधु भगवंत को वहोराया (प्रदान किया)। परिणामतः वे तीनों ही राजकुल में उत्पन्न हुए और उन्होंने अनेक प्रकारके सुख प्राप्त किए। तदनंतर भवान्तर में तीनों ने मोक्ष सुख को प्राप्त किया। (देखिये-द्रव्यसप्ततिका की दूसरी गाथा की टीका ) / यह क्या बता रहा है ? कि जब तक कोई वस्तु निश्चय पूर्वक किसी खाते में अर्पण नहीं कर दी जाती तब तक वह वस्तु उस खाते की नहीं गिनी ( मांनी) जाती है / उपयुक्त ब्राह्मण ने भगवान् को नैवेद्य चढ़ाने के लिए ही भोजन तैयार करवाया था, परन्तु अभी तक वह भोजनसामग्री भगवान् को चढ़ा नहीं देने के कारण - अर्पण
SR No.004448
Book TitleDevdravya Sambandhi Mere Vichar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorDharmsuri
PublisherMumukshu
Publication Year
Total Pages130
LanguageSanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Devdravya
File Size6 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy